17 नव॰ 2016

एक शहर जो भविष्य को खा रहा है।


दिल्ली मुझे डराता है ।
यहाँ इतिहास कोने में सिमटा सहमा है 
वर्तमान धुएँ को फँकता , गहमा है 
भविष्य यहाँ खाँसता , धुआँ फाँकता 
फुटपाथ पर भीख मांगता ,चार्जर और चीप साहित्य बेचता 
रेलों में सुबह शाम बस्ता ले कर दौड़ता
अपने दिन गिन रहा है ।
दिल्ली मुझे डराता है  ।

दिल्ली में आने वाले
बिहार, उड़ीसा, मेघालय, नागालैंड के परवासी 

पिघल कर बन जाते हैं एक दिल्लीवाले 
चालाक, जुगाडु, स्वार्थी, अंधे, क्रूर
बीतती है जिनकी ज़िंदगी
नौ से पाँच ,
सुबह शाम सड़कों पर
रेडियो जौकी की अनवरत रटंत के बीच ।

जिंदगी गुजरती है यहाँ रेल की तरह
घर एक बर्थ है - बस सोने के लिए
वे जीते हैं जिंदगी 
दूसरों के लिए
 -----नहीं यह मानवता नहीं, गुलामी है 
जिंदगी बंधुआ है उनके ऑफिसों में
घर बस एक बर्थ है उनके लिए ।

दिल्ली की सुबह है किसी स्टेशन की तरह 
हर कोई कहीं जाने की जुगाड़ में है 
लेकिन पहुंचता कहीं नहीं 

दिल्ली पर शाम किसी मरघट की तरह उतरती है
और गिद्ध बैठ जाते हैं इंतज़ार में
रात श्मशान की तरह सूनी है 


दिल्ली मुझे डराती है 


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