4 जुल॰ 2014

वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं : स्वरुपानन्द

वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं : स्वरुपानन्द

शंकरचार्य (?) को वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं है। यह होता रहा है। बहुत सी बातें इसलिए सही हैं की शास्त्रों में लिखा है। ये कौन से शास्त्र है कोई नहीं बताता। क्यूँ बताएगा ? कोई देख लेगा कि लिखा है या नहीं। शंकरचार्य ने भी नहीं बताया है की ठीक ठीक कौन सी बातों का विरोध किसने किया है। शुरुआत तो द्वेष की स्वयं शंकरचार्य ने ही की थी जबकि अथर्व वेद का कथन है
.....मा नो विदद्वृजिना द्वेष्या या 
(ऐसे बुरे कार्यों से हम दूर रहें जो द्वेष बढ़ाने वाले हों)
और इस तरह स्वयं स्वरूपनन्द ने साई बाबा को देवता और खुद को मनुष्य सिद्ध कर दिया है क्यूंकी वैदिक साहित्य के अंग शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है
.....सत्यमेव देवाः, अनृतं मनुष्याः (देवता सत्याचरण करने वाले और मनुष्य अनृत का आचरण करते हैं )
यजुर्वेद में मनुष्यता के लिए जो प्रार्थना है वह भी श्री स्वरूपानन्द जी भूल गए जिसमें कहा गया है
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।
 (“मैं सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ । हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें”)

साईं बाबा के प्रति अपने पूर्वगृह के कारण वे न केवल खुद वैदिक विरोधी (वेदाभ्यासजडः) सिद्ध हुये हैं बल्कि वे जिस पीठ के स्वामी हैं उसी के प्रवर्तक आदि गुरु शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के भी विरोधी सिद्ध हुये हैं। 
ॠग्वेद में कहा है
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” 
(एक ही मौलिक सत्ता को विद्वान अलग अलग नामों से पुकारते हैं)
इसी ॠग्वेद के सामंजस्य सूक्त में कहा है
“ येन देवा न वी यंति नो चविद्विशते मिथः।
  तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ।। “
 (जिस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद विद्वान एक दूसरे का विरोध नहीं करते और आपसी द्वेष समाप्त कर लेते हैं वह सर्वश्रेष्ठ विद्या ब्रह्मविद्या है जिसे हम सभी के घरों में पहुँचने की कामना करते हैं।) और आप तो द्वेष को बढ़ावा दे रहे हैं। आप कैसे ब्रह्म ज्ञानी है ?
स्वयं आदि शंकर ने अद्वैत की स्थापना करते हुये सिद्ध किया था की ब्रह्म ही परम तत्व है और उसकी कोई जाति या धर्म नहीं होता जीव और ब्रह्म दो नहीं, एक हैं और जीव ही वस्तुतः वास्तविक रूप में ब्रह्म है । आदि शंकर प्रत्येक जीव को ब्रह्म मान रहे हैं और आप एक मनुष्य को भगवान मानने से इंकार कर रहे हैं वह भी धर्म के आधार पर ? 
आप भी जानते हैं कि पत्थर देवता नहीं होता ....भक्ति उसे देवता बना देती है। भक्ति की शक्ति का स्रोत “भज गोविंदम” में स्वयं आदिशंकर ने स्पष्ट किया है - 
“जब बुद्धिमत्ता परिपक्व होती है तो हृदय में जमकर जड़ें जमा लेती है, वह प्रज्ञा बन जाती है। जब यह प्रज्ञा जीवन के साथ संयुक्त होती है तथा क्रिया का रूप ले लेती है तब भक्ति बन जाती है। ज्ञान जो परिपक्व होता है भक्ति कहलाता है। यदि यह भक्ति में नहीं बदलता तो निरुपयोगी है।
  

साईं बाबा को आप नहीं मानते ना सही उनके करोड़ों अनुयायी उनके बताए रास्ते को हृदय में जमा कर , उसे जीवन में उतार कर भक्ति के कारण पूजते हैं तो आप परेशान क्यूँ होते हैं ? यदि आप साईं को गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो आपको बड़ी लकीर खींचनी पड़ेगी, जैसा की स्वयं आदि शंकरचार्य ने बौद्ध धर्म के सापेक्ष किया था। आपको खुद को छोटा हो कर नहीं , बड़ा होकर जीतना होता है, यही हिन्दू परंपरा है ...उसका पालन कीजिये। 

कोई टिप्पणी नहीं: