1 फ़र॰ 2012

एक नाटक का सुखांत

कितना अभूतपूर्व था भारतीय लेखकों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए खड़े हो जाना। कितना सुंदर था यह प्रयास सरकार का की हम धर्मनिरपेक्ष देश में सबकी सुनेंगे उनकी भी जो धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। नहीं सुनेंगे तो बस उन धर्म निरपेक्ष आवाज़ों को जो आतीं हैं यूपी के बुनकरों के घरों से या बुंदेलखंड के किसानों की झोपड़ियों से। वे imageनहीं सुनेंगे विदर्भ के उन मरते किसानों की आहें। वे नहीं सुनेंगे गर्भ मेनमरती बच्चियों की चीखें। नहीं वे नहीं सुनेंगे आवाज़ें जो मँगतीं हैं हक। जो मँगतीं हैं शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ्य। वे सुन नहीं सकेंगे 170 मिलियन स्लमडॉग्स (हमें गर्व है कि हमें गाली दे कर बनाई गयी फिल्म से ही ऑस्कर देवता ने कृपा की)  की व्यथा जो मजबूर हैं अमानवीय परिस्थितियों में रहने को। दरअसल वे जिनका होने का दावा करते हैं सबसे दूर वे उनसे ही हैं।

सलमान रुशदी की लेखकीय क्षमता पर तो खैर विशेषज्ञों को ही अधिकार है बोलने का लेकिन मिडनाइट्स चिल्ड्रेन और सेटेनिक वर्सेज़ पड़ने के बाद लगा कि खुमैनी के फतवे ने उन्हें अपने आकार से ज्यादा जगह दे दी है जिसे भरने का प्रयास वे अपनी बदन दिखाऊ पेज 3 पत्नियों के जरिये करने की कोशिश करते हैं। बेशक पत्नियाँ बुढ़ातीं हैं और इस काम के लिए नयी आपूर्ति तलाक के जरिये हो जाती है। हॉलीवुड के बहुतेरे कब्रोन्मुखी सेलिब्रिटीज को देखा है मेंने। हर 3 साल में पत्नियाँ बदल बदल कर ही खबरों में रहते हैं। शादी करते हैं तो खबर, तलाक लेते हैं तो खबर। तलाक का सेटेलमेंट ही करोड़ों में होता है। तो ऐसे महान लेखक का यहाँ आना हमारे साहित्य जगत के लिए बड़ी बात थी।

उनके आने से पता नहीं कितने नव लेखकों को प्रेरणा मिलती और साहित्य का कैसा भला होता लेकिन उनके आने और ना आने के दुविधापूर्ण नाटक से निश्चय ही अनेक लोगों को "उल्लू सीध करना" नामक मुहावरे की बहुत ही साहित्यिक और यथार्थपूर्ण व्याख्या देखने को मिली। जयपुर साहित्यिक सम्मेलन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि रही। एक अङ्ग्रेज़ी रंजित सम्मेलन द्वारा हिन्दी मुहावरे की ऐसी साहित्यिक व्याख्या!  आखिर भारत धर्मनिरपेक्ष के साथ ही भाषा निरपेक्ष भी है। इस नाटक के पटाक्षेप के साथ ही कई संतुष्ट पक्ष दिखे। कांग्रेस(सो) [घबराइए नहीं सोनियाँ गांधी की कांग्रेस को उनकी पारिवारिक परंपरा के हिसाब से नाम दिया है] , बरखा दत्त, साहित्य सम्मेलन, कट्टरपंथी मुस्लिम, कट्टरपंथी हिन्दू, न्यूज़ चैनल्स आदि।

सरकार ने यह दिखाया कि वह संविधान, कानून और व्यक्तियों की सुरक्षा को लेकर कितनी संवेदनशील है। उसकी खुफिया संस्थाएं देश पर हुये भयानक आतंकी हमलों को न तो रोक पातीं हैं और न ही उनका सुराग लगा पातीं हैं लेकिन सलमान रुशदी कि सुरक्षा पर बड़ी तत्परता से ये सरकार को पहले से आगाह कर देतीं है और जो सरकार खुफिया सूचनाओं को दबा कर बैठने की आदि हो चुकी है वह सलमान रुशदी कि रक्षा के लिए चिंतित दिखाई देती है।

कांग्रेस पार्टी के लिए सुनहेरा अवसर था। यूपी के चुनाव,  राहुल की युवा(?) राजनीति और मुस्लिम वोटों को ध्रुविकृत करने का एक और अवसर। मुसलमानों को संसाधनों पर पहला हक होने का दावा करने वाली यह पार्टी पिछले 100 सालों से मुसलमानों का एक मात्र प्रतिनिधि होने का दावा करती रही है और तुष्टीकरण कि राजनीति कि जन्मदात्री रही है।

किताब भारत में प्रतिबंधित है और तब से एक नयी पीढ़ी जवान हो चुकी है और दूसरी हो रही है। इस पीढ़ी ने शायद इस किताब का नाम भी नहीं सुना होगा। यह दारुल उलूम कि ही कृपा है कि सेटेनिक वर्सेस को अब यह पीढ़ी भी जानती है। साहित्य की ऐसी ही सेवा की एक शैक्षणिक संस्था से उम्मीद थी।

सबसे अधिक फायदा जयपुर सम्मेलन को हुआ। निरंतर यह खबरों में छाया रहा। राष्ट्रिय मीडिया में, प्राइम टाइम में इतना बड़ा प्रचार अगर देते तो कितना खर्चा आता, जिज्ञासु जन यह बात मायावती जी से पूछ सकते है। उन्होने लगभग 6 महीनों से रोज़ सभी समाचार चैनलों को एक साथ 10 से 20 मिनट लंबे प्रचार दिये हैं। इसके अलावा निरंतर प्रिंट मीडिया, इन्टरनेट, मोबाइल पर फेस्टिवल मनाया गया। साहित्य का तो पता नहीं पर हाँ बजारवाद, मार्केटिंग, डिजायनिंग, मीडिया मैनेजमेंट जैसी चीजों का फायदा जरूर हो गया। और दिग्गी पैलेस को भला कौन नहीं जानता? संजोय रॉय कि भीगी आँखें तो सालों तक याद राहेंगीं। भला अभिव्यक्ति कि आज़ादी के लिए  खून तो छोड़िए लोग आजकल स्याही भी नहीं बहाते ऐसे में ये आँसू जरूर याद रहेंगे। 

एक और हैं बरखा दत्त। पहले रिपोर्टर थीं फिर कारगिल की बहादुरी भरी रिपोर्टिंग करके चर्चा में रहीं, तेज तर्रार और झन्नाटेदार अङ्ग्रेज़ी वाली यह रिपोर्टर मीडिया के पयदानों पर चढ़ती गई और फिर जो हाल ज्यादा चढ़ने पर सभी का होता है [ गुरुत्वाकर्षण] वे गिरीं भी। उनका उत्थान और पतन नवमीडिया या बाजारू मीडिया की एक केस स्टडी है। बरखा दत्त कि विश्वसनीयता को जो झटका लगा था उससे उबरने का यह एक सुनहरा मौका था। बंद कमरे में सलमान रुशदी से वीडियो लिंक पर  साक्षात्कार का उत्साह उनके निरंतर ट्वीट्स से झलक रहा था। उनकी वाही वाही हुयी।

सलमान रुशदी यहाँ लगा कि कठपुतली हैं। वे कभी भी ठीक से नहीं बता पाये कि वे भारत आ रहे हैं या नहीं। पहले उन्होने कहा मैं आऊँगा, फिर सरकार कि सुरक्षा संबंधी सूचना दी और कहा कि नहीं आऊँगा। फिर सरकार को, जयपुर पुलिस को झूठा बताया। फिर वीडियो लिंक कि बात कि और फिर हिंसा की बात कह कर उससे भी किनारा कर लिया और फिर बरखा दत्त के साथ बंद कमरे में दहाड़े कि "मैं भारत आ रहा हूँ - निपटो इससे"। एनडीटीवी ने इस प्रोग्राम को ब्रोडकास्ट किया।

इसके साथ ही एनडीटीवी की टीआरपी बढ़ी, प्रतियोगी इस फुटेज को चलाने को बाध्य हुये और बरखा फिर कार्गिल जैसी बहादुर हुईं। उन्होंने अभिव्यक्ति नामक चिड़िया को आज़ाद ही कर दिया। सलमान रश्दी की किताबों की बिक्री बढ़ी, दारुल उलूम खबरों में आया, कांग्रेस ने भरोसा दिलाया कि मुसलमानों के खैरख्वाह वही है। कट्टरपंथी खुश हुये कि हमने सलमान रुशदी को जयपुर फेस्टिवल में किसी तरह नहीं बोलने दिया। और हमने राहत कि सांस ली कि चलो कुछ और देखने को मिलेगा।

इस सब के बीच बेचारी ओप्रा विनफ्रे को फायदा नहीं मिल पाया हालांकि उनके बॉडीगार्डों ने मथुरा में हाथापाई करके कुछ फुटेज हथियाने कि कोशिश तो की थी। चलिये ओप्रा अगली बार सही।

यद्यपि मेरा मानना है कि सलमान रुशदी को आने देना चाहिए। बोलने देना चाहिए। लोगों को उनकी भी किताबें पदनी चाहिए, मुसलमानों को भी। एक किताब आपकी आस्था को क्या हिला सकती है? हाँ अगर आप ऐसा करना बंद कर देंगे तो आस्था ही बंद हो जाएगी जैसे प्राचीन धर्म अब नहीं हैं क्यूंकी वे समय के अनुसार नहीं बदले।

अनुपम दीक्षित

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