16 दिस॰ 2012

किसी रंजिश को हवा दो की मैं ज़िंदा हूँ अभी

किसी रंजिश को हवा दो की मैं ज़िंदा हूँ अभी 

अमेरिका के राष्ट्रपति की आँखें फिर नम हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुये हैं जब ऐसी ही घटना ने उन्हें आहत किया था। शब्द और माहौल भी वही हैं गमगीन, गंभीर और कुछ करने के वादे , कुछ नहीं बदला है और शायद कुछ बदलेगा भी नहीं। आखिर छोटे बच्चों की मौत पर भला अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसी महान और शानदार लाइनों को अमेरिकी संविधान से यूं ही तो नहीं मिटाया जा सकता। और भला इससे किसका फाइदा होगा? अगर अमरीकी शस्त्र कानून बदलाव किया जाता है तो बंदूकों की बिक्री बंद हो जाएगी। लोग बेरोजगार होंगे और अराजकता फैलेगी फिर लोग अवैध तरीके से हथियार लेकर यही काम करेंगे। इसलिए यह कानून रहेगा और ऐसा ही रहेगा। इसके पैरवी करने वाले इतने सजग हैं की जिस दिन यह घटना घटी ठीक उसी दिन डिस्कवरी चैनल पर मैंने एक कार्यक्रम देखा जिसका नाम था डूम्स डे प्रेपेयर्स। इसमें एक सज्जन ने प्रलय या डूम्स डे के लिए तैयारी में पानी से ज्यादा बंदूकें खरीद रखीं थीं और उसका पूरा चिंतन इसी एक तर्क पर टीका था की जब मंदी आएगी तो अराजकता फैलेगी और उससे रक्षा के लिए हमें ऐसी तैयारी की ही आवश्यकता होगी। तो ऐसे कार्यक्रम दरअसल एक डर पैदा करके उस भय के व्यावसायिक दोहन के लिए माहौल बनाते हैं। तो मुझे पूरा भरोसा है की अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनी नहीं जाएगी।

हाल की घटना में एक नौजवान ने एक स्कूल में फायरिंग करके 20 बच्चों और 8 वयस्कों की जान ले ली और खुद को एवं अपनी माँ को भी मौत के घाट उतार दिया। मामले की परतें खुलने पर पता चला है की यह नौजवान एक समृद्ध परिवार से था जिसके पिता बहुराष्ट्रीय कंपनी जीई कैपिटल में वाइस प्रेसिडेंट हैं और विश्व की सबसे बड़ी सलहकार फार्म अर्न्स्ट एंड यंग में पार्टनर भी हैं। लड़के का बड़ा भाई भी अर्न्स्ट एंड यंग में अच्छे पद पर है। बचपन में ही मटा पिता का अलगाव हुआ और फिर तलाक जिसके बाद दोनों अपनी माँ के साथ रहते थे जो इसी स्कूल में टीचर थी। आस पास के लोगों ने इस नौजवान को कभी बात करते या मिलते जुलते नहीं देखा और ना ही कोशिश की क्यूंकी उन्हें लगता था की वह अकेला ही रहना चाहता है। उसके एक सहपाठी के अनुसार वह होशियार था। उसकी कभी हिंसक गतिविधियां भी नहीं थीं। तब आखिर क्या बात थी जिसने उसे ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। क्या ऐसी घटनाओं के लिए अमेरिका ही अभिशप्त है ? भारत में ऐसी हृदयविदारक घटनाएँ क्यूँ नहीं होतीं? क्या यह संस्कृति से संबन्धित मामला है ? क्या ऐसा करने वाले आपराधिक मनोवृत्ति के लोग होते हैं?क्या यह कमजोर शस्त्र कानून का नतीजा है ? प्रश्न बड़े हैं और उत्तर नदारद। 

मुझे याद है अपना बचपन जो एक छोटे कस्बे में बीता था। हमारे मुहल्ले में कोई अकेला हो ही नहीं सकता था। आप बाहर निकालिए तो पूरी गली पार करते करते चबूतरों पर धूप सेंकते बुजुर्ग और गली के लड़के अगर यह ना पूछें की "काए लला कहाँ जाय रहे ?" तो लानत है उनके वहाँ होने पर  और आपको भी अपने अस्तित्व का बखूबी एहसास हो जाता था। अगर कभी कोई समस्या होती तो पूरा मुहल्ला शामिल होता और दुख तो खैर होता ही था सामूहिक। लड़की की शादी हो तो सहायता बिना मांगे मिलती थी। पड़ोसियों की खबर रखना अशिष्ट नहीं आवश्यक था। सब कुछ अच्छा अच्छा ही नहीं था बुराइयाँ भी थीं पर कम से कम उस स्थिति से तो बेहतर ही था जिसमें बगल के फ्लैट में आदमी चार दिन से मरा पड़ा हो और लोगों का ध्यान तब जाए जब बदबू आने लगे। 

मुझे लगता है की हमें फिर से सोचना होगा हमारे विकास और सफलता के मापदण्डों के बारे में। क्या किसी एमएनसी का CEO बनना ही जबकि आपका परिवार बिखर रहा हो । क्या मशीन की तरह काम करना और पैसा कमाना ही सफलता का मापदंड होना चाहिए। इस आधार पर उस नौजवान के पिता सफल हैं परंतु क्या वे मानवीय पैमानों पर सफल हैं? जब आपका परिवार बिखर रहा हो तो सफलता की सिद्धियों का क्या मतलब है। और क्या ऊंची इमारतें, फ़्लाइओवर, एकप्रेसवे, बड़ी गाड़ियां, ऊंचे पुल और बड़ी कंपनियाँ बैंक ही किसी समाज की सफलता की गारंटी हैं। अगर एक समाज अपने बच्चों को सुरक्षा, शिक्षा और सही वातावरण नहीं दे सकता तो उसके सफल होने का क्या अर्थ ? क्या एक राज्य तभी सफल है जबकि वह सबसे ज्यादा हथियार, सेना और शक्ति का प्रदर्शन कर सकता है जबकि उसका समाज दरक रहा हो। क्या एक संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी के पीछे जीवन के अधिकार को पीछे धकेल कर सफल माना जा सकता है। आखिर व्यक्तिगत जीवन की सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक जीवन की सुरक्षा होनी चाहिए। राज्य एक सामूहिक व्यवस्था है और इसमें व्यक्ति की निरपेक्ष स्वतन्त्रता नहीं होती इसलिए अमेरिकी क़ानूनो की निरपेक्षताएँ अक्सर विरोधाभासी नज़र आती हैं। इस घटना में नौजवान ने सभी हथियार कानूनी ढंग से खरीदे थे। उसे रोका नहीं जा सकता था यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता थी लेकिन उन लोगों के जीवन के नैसर्गिक अधिकार का क्या ? क्या यह अधिकार कम महत्वपूर्ण हैं ? अमेरिकी समाज का यह अकेलापन ऐसी घटनाओं का कारक बनता है। 
इस अकेलेपन में जब कोई नौजवान अपने अस्तित्व का आभास कराना चाहता है तब समाज व्यक्तिवादी हो कर उसके अकेलेपन को उस पर थोप देता है। उससे कोई नहीं पूछता की वह क्या चाहता है। उसके माँ बाप भी उसके कमरे के दरवाजे को अपनी सीमा मानते हैं और जब वह अकेलापन इतना असहनीय हो जाए तब वह एक ऐसी रंजिश को हवा देता है की जो समाज अभीतक उसके अस्तित्व से बेखबर था वह उसके होने और ना रहने के पलों को याद करके बरसों कांपता रहता है। 

तेल की धार देखो ............

प्रधान मंत्री जी कह रहे हैं की तेल का बिल , शिक्षा और स्वस्थ्य के बिल से ज्यादा है और इसे कम करके इन क्षेत्रों में लगाना जरूरी है । उत्तम विचार है। आखिर स्वस्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में पैसा है ही कहाँ जिसे खाया जा सके ! इन क्षेत्रों में जरा सा घोटाला करो नहीं की पकड़ में आ जाता है। कोई मंत्री स्वस्थ्य और शिक्षा का विभाग नहीं लेना चाहता और ना ही कोई कॉर्पोरेट इनके लिए लॉबीइंग करता है। अब तेल का पैसा आएगा तो हालत सुधरेंगे। अब ज़रा देखिये ना अभी यूपी में जो घोटाला हुआ है उसमें कितनी जानें चली गईं हैं। CMO भक्षी बन गया है राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन। सारी बुराइयों की जड़ सबसिडी ही है। छोड़ दीजिये उस अंतिम आदमी को बाज़ार के भरोसे और मुकर जाइए उन जिम्मेदारियों से जो एक कल्याणकारी राज्य की मानी जातीं है। 

11 दिस॰ 2012

पश्चिम का पागलपन

एक ऑस्ट्रेलियन एफ एम चैनल के जोकी द्वारा एक भारतीय मूल की नर्स को झूठी कॉल की और ब्रितानी राज घराने की बहू केट मिडल्टन के गर्भवती होने की खबर हासिल कर ली। इसके बाद उठे तूफान ने नर्स को इतना परेशान किया की उसने ख़ुदकुशी कर ली। इस घटना से एक बार फिर उस पागलपन पर प्रश्न चिह्न लग गया है जो शाही परिवार के बारे में खबरें प्राप्त करने के लिए जुनूनी हदें पार कर जाता है और कई जानें भी ले चुका है जिसमें खुद प्रिंस विलियम की माँ डायना की दर्दनाक मौत शामिल है और अब एक और जान केवल इसी वजह से चली गयी। शाही परिवार या सेलिब्रिटी की निजी ज़िंदगी के बारे में क्या श्रोता या पाठक वाकई इतने लालायित होते हैं कि रेडियो जौकी और पेप्रात्ज़ि कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं?! मुझे पूरा भरोसा है कि लोग ऐसा नहीं चाहते। आखिर क्यूँ नहीं कुछ अखबार या चैनल एक ऐसा व्यापक अध्ययन नहीं करा लेते जिसमें लोगों से इस प्रश्न को पूछा जाये। मुझे लगता है कि सेलिब्रिटी भी इस जनमत संग्रह को पसंद करेंगे और एक बड़े पागलपन से हम सबका पीछा छूटेगा। 

30 नव॰ 2012

धारा 19 बनाम धारा 66


पिछले दिनों मुंबई के एक स्थानीय नेता के निधन के बाद जैसा माहौल बिके हुये समाचार चैनलों ने बनाया उससे लगा जैसे इसके अलावा और कोई जरूरी मुद्दे नहीं हैं। बॉलीवुड के घाघरे में हर समय घुसे रहने वाले इन चैनलों को शाहरुख, सलमान बच्चन से अगर फुर्सत मिलती है तो कैमरा टिकता है ऐसे नेताओं पर जिनकी दुकान ही चलती है चुन चुन कर भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त गारंटियों को ध्वस्त करने से। ये बिके चैनल हर सामान्य कलाकार से उसकी खबर के ऐवज में पैसे मांगते हैं, हर अखबार खबर के बदले विज्ञापन चाहता है। न्यूज़ चैनलों पर या तो नेताओं और एंकरों की फिक्स लफ़्फ़ाजियाँ होतीं हैं या फिर करोड़ों रुपये ले कर फिल्मों और सीरियलों के प्रचार। कोई ढंग की स्टोरी, खबर से अब इनका नाता नहीं रहा। जनता का सरोकार जनता की रुचि के नाम पर स्वाहा कर दिया गया है लेकिन मुंबई के कार्टूनिस्ट और स्वयंभू हिन्दू हृदय सम्राट 
के निधन पर लगभग पूरा पखवाड़ा ही स्वाहा कर दिया गया। उन महान नेता के व्यक्तित्व पर खूब चाशनी लपेटी गयी और भरा पूरा श्रद्धांजली वाला माहौल बनाया गया। 
                             फेसबुक पर एक लड़की द्वारा ऐसे ही माहौल पर प्रश्न खड़ा करना उस नेता के पिछलग्गुओं (अनुयाई सिद्धांतों के लिए प्रयोग  किया जाता है ) और इनसे भयभीत राज्य का वह महकमा जो असल में जनता को भयमुक्त करने के लिए था, इन लड़कियों को भयभीत करने में जुट गया। मुंबई पुलिस को आधा घंटा भी नहीं लगा यह सुनिश्चित करने में की इन लड़कियों ने, जिनमें से एक ने तो केवल उस पोस्ट को लाइक ही किया था, सूचना तकनीक कानून की धारा 66ए का उल्लंघन किया है और माननीय न्यायाधीश को उससे भी कम समय लगा उन नागरिकों के प्रथम दृष्टया अपराध निर्धारित करने में। और उन गुंडों को तो खैर और भी कम समय लगा लड़की के रिश्तेदार डॉक्टर का क्लीनिक ध्वस्त करने में। इस चापलूसी, भय और राजनौतिक मजबूरी के कुहासे में यह तथ्य कहीं खो गया की फेसबुक पर महाज़ 200 शब्दों की छोटी से टिप्पणी अगर सेडिशन और व्यवस्था के लिए खतरा हो सकती है तो फिर उन दिवंगत महान नेता के वे जहर बुझे वाक्य क्यूँ नहीं सेडिशन, अराजकता का खतरा जैसी चिंताएँ नहीं उठा सके? आखिर धारा 19 का ध्यान मुंबई पुलिस को क्यूँ नहीं आता और क्यूँ नहीं कोई न्यायालय धारा 19 के उल्लंघन को निर्धारित नहीं कर पाते। (धारा 19 हमारे संविधान में है और नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कुछ प्रतिबंधों के साथ देती है।)


संविधान द्वारा मिले अधिकार: संविधान का अनुच्छेद १५ हमें आश्वासन देता है कि हमसे भारत देश में धर्मजाति,मूलवंशलिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा. अनुच्छेद १६ के द्वारा संविधान सरकारी नौकरियों में  न केवल अवसर की समानता देता है बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि हमसे धर्मजातिमूलवंशलिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद ना हो. इसी प्रकार अनुच्छेद १९ प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति एवं अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्रदान करता है. हमें यही अनुच्छेद सम्पूर्ण भारत में घूमने फिरनेकहीं भी बस जाने और कोई भी व्यवसाय कहीं भी करने का अधिकार देता है.
परन्तु अभिव्यक्तिका यह अधिकार निर्बाध नहीं है. इन स्वतंत्रताओं पर रोक भी लग सकती है यदि इनका प्रयोग भारत कि एकताअखंडतासंप्रभुतालोकव्यवस्थाविदेशी राज्यों के साथ मैत्री पूर्ण संबधों पर विपरीत असर डालने में किया जायेगा. संवैधानिक पदों पर व्यक्ति को प्रतिज्ञन करनी होती है उसका पूरा खाका भी संविधान कि एक अलग सूची (तीसरी अनुसूची) में किया गया है. प्रत्येक विधायकसांसद और मंत्री को संविधान के प्रति निष्ठा कि और एकता व अखंडता को सुरक्षित रखने कि शपथ लेनी होती हैं.

अब यदि उपरोक्त तमाम कानूनों के प्रकाश में हम बाल ठाकरेउद्धव ठाकरे और राजठाकरे के वक्तव्यों को देखें तो प्रथम दृष्टया यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके वक्तव्य संविधान विरोधी हैं.

बैंक या रेलवे के परीक्षर्थियों पर हमला और उन्हें परीक्षा से वंचित करना अनु० १५ और १६ का उल्लंघन है. साथ ही यह ऐसी अभिव्यक्ति है जो लोकव्यवस्थाएकताअखंडता,संप्रभुता पर विपरीत असर डालती है अतः इसकी अनुमति किसी संगठन को नहीं दी जा सकती (अनु० १९).

पाकिस्तान या ऑस्ट्रेलिया के खिलाडियों सम्बन्धी राज - बाल ठाकरे के बयान निश्चित तौर पर विदेशी राज्यों से संबंधों पर विपरीत असर डालते हैं और अनु ० १९ का उल्लंघन करते हैं.

उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगानेउन पर हमला करने जैसे कृत्य अनु० १५१६ कीबखिया उधेड़ते हैं तो एक राजनीतिक दल के रूप में चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन भी करते हैं. चुनाव आयोग एक संवैधानिक निकाय है और राजनैतिक दलों के लिए निर्धारित आचार संहिता के पहले पैराग्राफ में ही लिखा है कि "कोई भी पार्टी ऐसीकिसी गतिविधि में शामिल नहीं होगी जो धर्मंजातिसमुदाय या भाषा के आधार पर विभेद पैदा करती हो." पर शिवसेना आदि दल ऐसा ही करते हैं औरखुले आम करते हैं. 

ये दल स्वयं को सांस्कृतिक दल कहते हैं परन्तु इनकी कार्यवाहियां हिंसकफासीवादी और अलगाववादी हैं. यह दल इसी अराजकता के सहारे थोड़ी सी राजनैतिक शक्ति जुटा कर क्षेत्रीय राजनीति में सौदेबाजी करते हैं और तो और केंद्रीय राजनीती को भी प्रभावित करते हैं. यह भी संविधान का उल्लंघन ही है क्यूंकि संविधान लोकतान्त्रिक व्यवस्था कि गारंटी देता है जबकि यह दल हफ्ता वसूली दल कि भांति काम करते हैं. शिवसेना केवल मुंबई कि राजनीती कर के स्वयं को पूरे महाराष्ट्र का ठेकेदार मानती है. २८८ में से केवल १३ सीटें जीतने वाले दल आखिर राजनीती कि दिशा क्यूँ तय करेंइस प्रकार शिवसेना हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर हर दृष्टि से प्रश्नचिंह लगाती है.  है कोई कानून जो इन महान नेताओं को नाथ सके



(भारत भाग्य विधाता के भरोसे अपलोड कर रहा हूँ )

21 नव॰ 2012

हंगामा है क्यूँ बरपा !

एक भारतीय दांत चिकित्सक महिला की आयरलैंड में इसलिए मौत हो गयी क्यूंकी डॉक्टर ने उसकी जान बचाने के लिए आवश्यक होते हुये भी गर्भपात करवाने से इनकार कर दिया क्यूंकी उसका कानून इसकी इजाज़त नहीं देता। इससे पुनः आइरिश कानून पर बहस छिड़ गयी है और भारत ने तो बकायदा आयरलैंड को सलाह भी दे डाली है की इस मामले की निष्पक्ष जांच करा ली जाए (जैसी की अपने यहाँ के नताओं को आदत सी हो गयी है) अनेक भारतीय समाचार चैनल इस मसले पर हंगामा बरपा रहे हैं । उस महिला की मौत दुर्भाग्यपूर्ण है और वह डॉक्टर तो निश्चित ही निंदनीय है जिसने उसका सही इलाज करने के अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया लेकिन ज़रा यहाँ ठहरिए और सोचिए क्या हमें अधिकार है इतना हंगामा खड़ा करने का ?

  • भारत के लोग हर वर्ष लाखों बच्चियों को गर्भ में मार डालते हैं। भारत के छोटे से छोटे कस्बे में अल्ट्रासाउंड सबसे चोखा धंधा है। इसे ले कर किसी डाक्टर को कानून क्या भगवान भी याद नहीं आते। आयरलैंड के डाक्टर कम से कम कानून का तो पालन करते हैं। 
  • भारत में हर वर्ष असुरक्षित प्रसव से लाखों माताओं की मौत होती और लाखों बच्चे मर जाते हैं तब कोई हँगामा नहीं सुनाई देता बस हर दस वर्ष में रस्मी तौर पर जनगणना के आंकड़ों पर बहसें हो जाया करतीं हैं। 
  • भारत में हर वर्ष लाखों बच्चियों की अल्पवयस्क होते हुये भी शादी की जाती है तब कोई हंगामा नहीं होता। 
  • भारत के चौराहों पर, मंदिरों में, और उनके बाहर, रेलवे स्टेशनों पर लाखों बच्चे भीख मांगते हैं पर तब हमें शर्म, गुस्सा या खीज नहीं होती। 
  • भारत के लाखों बच्चे आज भी भूख से मर जाते हैं पर किसी के कण पर जूँ तक नहीं रेंगती । 
  • भारत में हर वर्ष लाखों विवाहित महिलाएं दहेज के लिए मार डालीं जातीं हैं पर हमें फर्क नहीं पड़ता। 
  •  भारत जो एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है ( हम आयरलैंड की कैथोलिक एंगिल से भी आलोचना कर रहे हैं ) औरतों के लिए अलग अलग कानून हैं - हिंदुओं के लिए अलग और मुसलमानों के लिए अलग।
  • भारत में हर वर्ष सैकड़ों लड़कियां इसलिए मार दी जाती हैं क्यूंकी वे अपनी पसंद का जीवन साथी चुन लेतीं हैं। 
इन सबके लिए -----ध्यान से देखिये सरकार नहीं लोग दोषी हैं ----यही सबसे बड़ा भ्रष्ट आचरण है ---- स्विस बैंकों में दौलत जमा करने से बड़ा पाप है अजन्मी बच्चियों की हत्या, पैसे के लिए अपनी पत्नी, बहू की हत्या, धर्म की आड़ में बच्चों को टीकाकरण से दूर रखना, स्त्रियॉं को सामान्य मानव के हकों से दूर रखना। चिंता हमें आयरलैंड के क़ानूनों की नहीं अपने समाज की करनी चाहिए। आयरलैंड का क़ानून ो मुझे स्पष्ट लगा की अगर माँ की जान बचाने के लिए गर्भपात आवश्यक है तो इसकी अनुमति है पर हमारे देश के उन क़ानूनों की चिंता कीजिये जो ऐसे छेद छोड़ देते हैं जिससे उन्हें तोडा जा सके। आइये चिंता करें उन क़ानूनों की जो किसी स्त्री को उसका अधिकार नहीं दे सकते। आयरलैंड को निपटने दीजिये इस मुद्दे से वे इसे अपनी तरह से हल कर ही लेंगे। 

12 नव॰ 2012

जनता है सोने की मुर्गी

2G घोटाले के बाद अब तक घोटालों के प्रति हमारी संवेदनाओं को तृप्त करने वाले और भीषण, विभीषण प्रकार के घोटाले सामने आ चुके हैं। पर जैसा की हर घोटाले में होता है - दोनों ओर से जनता ही हलाल होती है। पहले तो जनता के कारों के पैसों से विकसित तकनीक को कौड़ियों के दामों पर निजी कंपनियों को बेच दिया गया। इन कंपनियों ने इसके ज़बरदस्त दाम वसूले। शायद आपको वह ज़माना याद भी ना हो की 1997 में मोबाइल कॉल दरें 18 रू प्रति मिनट थीं और इंकमिंग भी फ्री नहीं थी। फिर घोटाला खुला और न्यायालय ने सभी आबंटन रद्द कर दिये। हालांकि सज़ा नहीं हुयी। न्यायालय असाहय है। आरोप सिद्ध करना जिसका काम है वह करबद्ध और नतमस्तक है। लेकिन न्यायालय के इस फैसले के बाद अब मंत्री जी का संकेत है की दाम बढ़ेंगे। यानि जनता को फिर से हलाल किया जाएगा। क्या न्यायालय सुओ मोटो इस मामले को ले कर न्याय दिलाएगा की स्पेक्ट्रम के आबंटन से जो घाटा हुया वह इन कंपनियों के प्रॉफ़िट से वसूला जाए, दोषी नेताओं के वेतनमान, भविष्यनिधि और पेंशन फंड से काटा जाए। स्पेक्ट्रम नीलामी के नाम पर कॉल दरों को बढ़ाना नैसर्गिक न्याय का स्पष्ट उल्लंघन है। आखिर जनता कितनी बार और क्यूँ टैक्स भरे? पहले तकनीक विकास के लिए, फिर उस तकनीक के उत्पाद को खरीदने और प्रयोग करने पर टैक्स, और अब घोटालेबाज कंपनियों को जब दोबारा पैसा देना पड़ रहा है तो बढ़ी कॉल दरों के रूप में अनुचित भुगतान और अनुचित टैक्स। क्या न्यायालय संज्ञान लेगा ? 

Oh My God: भगवान की सही व्याख्या

भगवान को देखा है? कैसा है वह? कहाँ रहता है ? हिन्दू है या मुसलमान? आदमी है या औरत? शक्ल कैसी है? ये और इन जैसे अनेक प्रश्न मनुष्य को आदि काल से मथते आए हैं। इसी मंथन से वेद, उपनिषद, वेदांग, गीता, बाइबल, अवेस्ता, क़ुरान जैसे ग्रंथ निकले हैं। इन्हें किसने रचा कोई नहीं जानता पर इनमें मानव जाति  के सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान का समावेश है। यह ज्ञान है अस्तित्व का, मनुष्य के होने के कारण का, उसकी कठनाइयों का और उसकी जिम्मेदारियों का। यह ज्ञान है मनुष्य के विकास का, उन्नयन का। पशुत्व से मानवत्व के विकास की कुंजी का। यह ज्ञान है आस्था का, भरोसे का और इसी ज्ञान से जब जब भरोसा टूटता है तब तब उसे फिर से स्थापित करने के लिए किसी मुहम्मद, ईसा, कृष्ण या बुद्ध को आना पड़ता है और इन ग्रन्थों की शिक्षाओं को फिर से नए संदर्भों में स्थापित करना पड़ता है। दुनियाँ के सबसे पुराने हिन्दू धर्म में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। इस धर्म में निरंतार नए तत्वों का समावेश होता रहा है। यह सबको अपने भीतर ले कर चलने वाला सही मायने में लोकतांत्रिकता का प्रतीक है। इसमें सनातन से लेकर पुरातन, नास्तिक, तांत्रिक, अघोर, शैव, शक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, निरीश्वरवादी और हर तरह का वाद विवाद शामिल होता आया है। यह धर्म हर एक वाद को फलने फूलने का स्पेस देता आया है। इसीलिए जब ओह माई गॉड में कांजी भाई (कान्ह जी - कृष्ण का अपभ्रंश) भगवान को कोसते हैं और मूर्तियों का धंधा चोखा करते हैं तो कोई फतवा जारी नहीं होता। कोई मंत्री करोड़ों के ईनाम की घोषणा नहीं करता। लोग हँसते हैं और कांजी भाई की बातों पर कहीं गहरे ध्यान भी देते है। संतों के विद्रूप पर किसी का सिर कलम करने की घोषणा नहीं होती। OMG मज़ाक में उस धर्म की उस सड़न की ओर इशारा करती है जिसकी दुर्गंध के अब हम आदि हो गए हैं। अनेक बापू, बाबाओं और निर्मलो के चोखे धंधे से पर्दा फ़ाश करती यह फिल्म एक सरहनीय प्रयास है। भगवान का असली स्वरूप तो प्राणियों में है। देखने के लिए ज्ञान चक्षु नहीं प्रेम की दृष्टि चाहिए। एक शायर का कहना है

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, जिसको देखा ही नहीं उसको खुदा कहते हैं।

फिल्म कांजीभाई को नास्तिक कहती है और नास्तिक का अर्थ भी बताती है - वह जो प्रमाण में आस्था रखे। यह भारत की ही खूबी है की वैदिक दर्शन को ना मानने वाले नास्तिक दर्शन भी हिंदुओं के ही माने जाते हैं। चार्वाक के लोकायत दर्शन का भौतिकवाद, बुद्ध का क्षणिकवाद और जैन का इंद्रियनिग्रह एक ही समस्या के अलग अलग हल हैं। बौद्ध और जैन धर्मों ने मानवता, अहिंसा और क्षमा पर जो बल दिया है वह असल में इसी तथ्य पर बल है की असली धर्म है प्राणियों के प्रति दया, अहिंसा, शुद्ध विचार और सादा जीवन। आडंबर यज्ञ, कीर्तन, पूजा और मंत्रों से श्रेष्ठ है दया और मन की शुद्धता। मन चंगा तो कठौती में गंगा। दारम की सरलता में ही उसका कल्याणकारी स्वरूप निहित है। आज बापुओं, निर्मलो ने न केवल धर्म को दुकान में बदल दिया है बल्कि उसका विद्रूप भी बना दिया है। खैर दुकानें तो चलती ही रहेंगी संतोष बस इतना  ही है की इनके खिलाफ आवाज़ उठती रहनी चाहिए। जो समाज खुद की आलोचना नहीं करता वह विकसित नहीं हो सकता है।

5 अक्तू॰ 2012

Acute Corruption Syndrome

बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में हर साल इस समय एक भीषण बीमारी फैलती है जिसमें हजारों (बढ़ा चढ़ा कर नहीं सच बता रहा हूँ ) बच्चे मर जाते हैं। यह बीमारी है तो एन्सिफेलाइटिस या दिमागी बुखार पर सरकारी स्वस्थ मशीनरी इसे स्वेईकार नहीं करती। जब बीमारी फैलती है तो सरकार मुआवजा दे देती है और विशेषज्ञ भेज देती है। ये विशेषज्ञ सरकारी गेस्ट हाउस में रुकते हैं, स्थानीय स्वस्थ्य अधिकारियों की मेजबानी स्वीकार करते हैं, तर माल खाते हैं और रिपोर्ट बना कर देते हैं की यह बीमारी एन्सिफेलाइटिस नहीं है बल्कि उससे मिलती जुलती है। क्या है पता नहीं फिलहाल नाम की सुविधा के लिए इसे एक्यूट एन्सिफेलाइटिस सिंड्रोम (अर्थात तेज़ एन्सिफेलाइटिस जैसे लक्षण) कह दिया जाता है।

4 अक्तू॰ 2012

अखिलेश सरकार के 6 महीने और आशाओं का टूटना

अखिलेश सरकार को 6 महीने हो गए हैं और यूपी अब भी वैसा ही है। आशाएँ टूट रहीं हैं। प्राइमटाइमों में बैठ कर बकैती करने वाले बातों के वीर अखिलेश के युवा होने को ले कर ऐसे उत्साहित थे जैसे उनसे पहले और कोई युवा नहीं हुआ। एक और युवा हैं हमारे देश में जिनको ले कर ऐसे ही जानकारों को बहुत आशाएँ हैं।

3 अक्तू॰ 2012

क्यों मुझे गाँधी पसंद नहीं है ?

क्यों मुझे गाँधी पसंद नहीं है ?
इन्टरनेट पर गांधी जयंती के दिन ही फेसबुक पर एक पोस्ट टैग की गयी जिसका शीर्षक था - क्यों मुझे गाँधी पसंद नहीं है ? इसने मुझे आहात कर दिया। इसमें वही गलत तथ्य थे जिन्हें ले कर गांधी जी को बदनाम किया जाता है मसलन भगत सिंह, 55 करोड़ आदि। प्रस्तुत है पूरी रिसर्च के साथ इन गलत तथ्यों के पीछे के सही तथ्य जो पिछले 60 वर्षों से अनेक गोडसे के पुत्र गांधी की बार बार हत्या करने के लिए प्रयोग करते हैं। आशा है आपमें से बहुतों की गलतफहमियां  दूर होंगी और आप अपने प्यारे देश और इसके महान स्वतन्त्रता शहीदों को सम्मान देना सीख पाएंगे बजाय टुच्ची विचारधारा वाली राजनीति का शिकार बनने और खुद की नज़रों में गिरने के। यह लेख मैंने आरोप और उनके उत्तर के रूप में लिखा है। आरोप उन महोदय के हैं जिन्होंने मुझे टैग किया था और उत्तर मेरे हैं।

17 सित॰ 2012

हवा हवाई

हवा हवाई एक गाना है । उसी फिल्म का, जिसका नायक गायब हो जाता है। आज यह “हवा” और “हवाई” शब्द महत्वपूर्ण हैं। शेयर बाज़ार का खेल ही कुछ ऐसा है। इसमें लोग हवाई आकांक्षाओं के हवाई किले बनाते हैं। उनसे बनता है “हवाई” पैसा। इसमें खिलाड़ी दूसरों के पैसों से खेलते हैं। ज़ाहिर है, अपना पैसा हो तो डर लगे पर दूसरों के पैसों का क्या डर? लगाओ दबा के। और जब पैसा बन जाए तो कहीं पैसा बनाने वाला इसे दबा कर ना बैठ जाए इसलिए उसे उड़ाने के लिए प्रेरित किया जाए। अमेरिकन संस्कृति(?) है ही ऐसी। चादर में ही मत सिमटो। चादर को बड़ा मान कर चलो (अर्थात अपनी क्षमताओं की हवाई सीमाएं बनाओ) और फिर जितना मन चाहे पैर फैलाओ। इसीलिए अमेरिका में हवाई का बड़ा क्रेज़ है। वहाँ का जो कुछ और जैसा साहित्य है जैसे की फिल्में, उपन्यास और टीवी सीरियल्स आदि से पता चलता है की “हवाई” (द्वीप) का वहाँ वही महत्व है जो अपने यहाँ प्रेस्टीज़ प्रेशर कुकर का

15 अग॰ 2012

भारत की रेल पेल

बचपन में दादा के साथ रोज़ शाम को भरथना रेलवे स्टेशन तक घूमने जाना ही शायद इसका कारण है की ट्रेनें मुझे आज भी पसंद हैं। रेलवे स्टेशन की सीढ़ियाँ, रेलिंग, दूर तक जातीं पटरियाँ, खोमचों की गंध और इसके साथ ही बीड़ी और पसीने की मिली जुली अजीब सी --- क्या कहूँ - खुशबू या बदबू की परिभाषा फिट नहीं बैठती बस "बू" । भरथना का स्टेशन छोटा सा था पर अत्यधिक साफ सुथरा और व्यवस्थित। उस पर आज के शहरी स्टेशनों की भांति पाखाने के असह्य बदबू नहीं आती थी - आज भी नहीं आतीऔर कमोबेश हर छोटे स्टेशन पर नहीं आती पर जैसे ही बसावट शहरी होने लगती है यह बदबू बढ़ती जाती है। दिल्ली और मुंबई का तो हाल ही बुरा है। शायद शहरी होने की आपाधापी में हम सफाई भूल जाते हैं। खैर बात थी रेलों की और हम लूप लाइन पर चले गए। मेरा प्राथमिक विदद्यालय ही ट्रेनों पर निर्भर था। दादा जी हमें सीढ़ियाँ गिनवाते, ट्रेनों के डब्बों पर लिखे नंबर और अक्षर पढ़वाते। और ऐसे ही ट्रेनों से लगाव बढ़ता गया। अलीगढ़ प्रवास के दौरान तो किताबें खरीदने और तफरी करने की मनपसंद जगह थी रेलवे। फिर बाद में जब बड़े हुये और प्रकृतिक विज्ञानों की समाज से दूर पढ़ाई छोड़ कर इतिहास, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र जैसे समाज से करीब विषय पढे तो जाना की रेलों की विश्व इतिहास में बहुत खास भूमिका है और अकेले हम ही नहीं रेलों के दुनियाँ में अनेक दीवाने हैं। जेम्स वाट और न्यू कोमेन के भाप के इंजनों ने ही हमें यहाँ तक पहुंचाया है। भाप के इन इंजनों को इंग्लैंड में पहले से ही मौजूद लकड़ी और लोहे की रेलों और वैगनों या ट्राम में फिट किया गया। यह भाप का इंजन और उपनिवेशों की विशाल कमाई इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति का कारण बनी। अमेरिका, औस्ट्रेलिया, अफ्रीका और रूस में यह गोल्ड रश, डायमंड रश और ब्लेक रश जैसी क्रांतियों का कारण बनीं। यही नहीं रेलों का सामाजिक प्रभाव भी अद्भुत था और है। रेलों ने दूरस्थ प्रदेशों को जोड़ कर 19वीं और 20वीं शताब्दियों में पनपते राष्ट्रवाद को मजबूती दी। भारत जैसे देश में हालांकि रेलों की शुरुआत अंग्रेजों ने अपने फ़ायदों के लिए ही की लेकिन यह रेल भारत को एक राष्ट्र बनाने में बहुत हद तक जिम्मेदार थी। रेल ने दूर के प्रदेशों को आपस में जोड़ा और जाति प्रथा के दंश को किसी हद तक कम किया। आखिरकार भारत के मुक्तिसंग्राम को एक नया मुखिया रेलों के कारण ही तो मिला था। ना मोहनदास गांधी को दक्षिण अफ्रीका में रेलगाड़ी के डब्बे से बाहर फेंका गया होता और ना ही उनके चिंतन को एक नयी दिशा मिली होती। और जब 1915 में गोखले ने गांधी को भारत को समझने की सलाह दी तो असली भारत देखने के लिए उनकी जिस साधन ने सर्वाधिक उपयोगिता सिद्धा की वह भारतीय रेल ही थी। भारत के आंदोलनों में तो यह उस राज सत्ता का प्रतीक भी थी। आजादी के आंदोलनों में रेल रोकना, पटरियाँ नष्ट करना अंग्रेजों के प्रति   घृणा दिखने का सबसे सुलभ प्रतीक थी। भारत के विभाजन की त्रासदी को व्यक्त करने वाली कुछ सबसे महत्वपूर्ण रचनाएँ जैसे ट्रेन टु पाकिस्तान और भीष्म साहनी की कहानी (नाम इस समय याद नहीं आ रहा) ट्रेनों की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं।
आज भी भारतीय रेल दुनियाँ की सबसे बड़ी सेवा है। रोजाना करीब 3 करोड़ लोग इसमें सफर करते हैं और लगभग 1 करोड़ इससे संबन्धित सेवाओं का लाभ उठाते हैं। रेलवे करोड़ो लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मुहैया करती है। छोटे शहरों में रेलवे स्टेशन शहर की धुरी की तरह होते हैं और आपंको एक सलाह - अगर कभी यात्रा में अंजान शहर में फंस जाएँ तो सीधे रेलवे स्टेशन की ओर रुख कीजिये। देर रात तक चहल पहल आपको वहीं मिलेगी और सुरक्शित भी रहेंगे। 

30 जुल॰ 2012

गुरु की महिमा

इधर भारतीय मुक्केबाज़ी  का जो कायाकल्प हुआ है उसका श्रेय निश्चित ही भारतीय मुक्केबाज़ी कोच गुरुबक्ष सिंह को ही जाता है। मुक्केबाज़ी के लाइव मुक़ाबले के दौरान मुझे यह छवि सब कुछ कहती नज़र आयी और मैंने फौरन अपने GALAXY Tab के स्क्रीन कैप्चर का प्रयोग किया।
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मुक्केबाज़ विजेंदर अपने मुक़ाबले के अंत में दर्शकों का अभिवादन करते हुये। पृष्ठभूमि में हैं भारतीय मुक्केबाज़ी के पितामह श्री गुरबक्ष सिंह। विजेंदर और जय भगवान को आँके आगामी मुकाबलों के लिए शुभकामनाएँ।

13 जुल॰ 2012

गुवाहाटी का अफसोस


गुवाहाटी की शर्मसार करने वाली घटना कई सवाल खड़े करती है। यह केवल गुवाहाटी में ही नहीं हर कहीं मौजूद है। एक प्रतिष्ठित अङ्ग्रेज़ी समाचार चैनल की वाचिका की प्रतिकृया ट्विटर पर थी। उनके अनुसार हम खुद को सुपर पावर कहते हैं और ऐसी घटनाएँ होतीं हैं। प्रश्न यह है की क्या सुपर पावर नैतिक भी होता है। बल्कि अगर आप देखें तो पाएंगे की सुपर पावर ही सबसे अनैतिक भी होता है। शक्ति है ही ऐसी चीज़। तभी किसी दार्शनिक ने कहा था "power corrupts and absolute power corrupts absolutely" शक्ति भ्रष्ट करती है और सम्पूर्ण शक्ति पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है। दुनियाँ में जो भी सुपर पावर है वह उसका दुरुपयोग ही कर करहा है। हमारे समाज का ढांचा ही ऐसा बन गया है। अमेरिका ने अपने गुंडों के साथ (नैटो पढ़िये) इराक का जो हाल किया वह इसी गुवाहाटी जैसी घटना ही थी। जब से इंसान ने यह शक्ति और सत्ता का आविष्कार किया है वह इन पर कब्जे को लेकर लड़ता रहा है। दुनियाँ का इतिहास उठाइए तो पाएंगे की यह असल में युद्धों और संघर्षों का ही इतिहास है। समाज का अध्यययन करें तो वहाँ भी सत्ता और संपत्ति का संघर्ष मौजूद है। हमारा समाज पितृसत्तात्मक समाज है जहां संपत्ति का उत्तराधिकार पिता से पुत्र को जाता है। पुत्री का अधिकार नहीं है। मातृसत्तात्मक समाजों में यह उत्तराधिकार माँ से पुत्री को मिलता है। पर ऐसे समाजों में विवाह और परिवार की व्यवस्था वैसी नहीं होती। यहाँ पुरुष ढीले रूप से माँ-पुत्री से जुड़े रहते हैं। ऐसे समाज अब विश्व में बहुत कम हैं। पितृसत्तात्मक समाज अपने पुत्रों को सर्वोच्च स्थान देता है। उसकी प्रस्थिती और भूमिका उसे समाज में ताकतवर बनती है और यही ताकत उसे भ्रष्ट बना देती है। इस अव्यवस्था से निपटने के लिए ही समाज ने विवाह और संपत्ति के कानून बनाए  और उन्हें धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक ताकतों  से लागू करवाया गया। समाज के नैतिक मूल्य ताकत के दुरुपयोग की प्रवृत्ति को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लेकिन आधुनिक अर्थव्यवस्था और व्यक्तिवादी दर्शन ने इस मूल्यों को तिलांजली दे दी है। इन्हें विक्टोरिया युगीन कह कह कर खारिज किया जाता है पर विडम्बना है की जो नए मूल्य पनप रहे हैं वे तो बर्बर हैं( विक्टोरिया युग से पहले यूरोप में पूर्वी ताकतों - हूणों, को बर्बर कहा जाता था) । आज नयी व्यवस्था नारी स्वातंत्र्य की पक्षधर है पर यही व्यवस्था इस स्वतन्त्रता का केवल विभ्रम पैदा करती है। असली स्वतन्त्रता नहीं देती। यह व्यवस्था नारी को देह तक ही सीमित करती है और उसे एक उत्पाद के रूप में देखने को प्रेरित करती है। यह व्यवस्था अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में स्त्री का अनैतिक प्रदर्शन जारी रखती है। यह व्यवस्था स्त्री को एक सेंट पर मर मिटने के लिए तैयार दिखाती है। यह व्यवस्था स्त्री को आइटम बनती है - चिकनी चमेली बनाती है, शीला और मुन्नी बनाती है। एक अखबार तो 18 वर्ष की उम्र में शराब पीने  के अधिकार को ले कर बाकायदा एक जंग चला रहा है। अनेक अखबार जो छाप नहीं सकते उसे अपने वेब पोर्टल पर रखते है। फिल्में हमारी निरंतर अपनी सामाजिक हदें पार कर रहीं है। निरंतर गालियां, अश्लील और द्वियार्थी संवाद और आइटम नंबर आपको जल्दी ही इंका आदि बना रहे हैं। टीवी कार्यक्रमों में आप घर बैठे यह सब देख सकते हैं और अगर आप परेशान हैं तो जल्दी ही आप बहिष्कृत भी महसूस करेंगे। तो बेहतर है की आप समाजस्य बैठा लें। आप समाज में अधनंगे घूमें और आधुनिक कहलाए जाने को अधिक पसंद करेंगे  बजाए ओल्ड फैशन और आउटडेटेड के। बच्चों के आदर्श आज यहाँ नहीं वहाँ है - अमेरिका में। उनका संदर्भ भारतीय नहीं है अमरीकी है। आज बच्चे एकोन और एमिनेम को सुनते हैं जिनमें हिंसा, सेक्स और गलियों का तड़का लगा है। एकोन 14 वर्षीय बालिका के साथ स्टेज पर जो करता है वह हमारे लिए आघात है पर उनके लिए आदर्श है जो उसे सुनते हैं। हाल ही में हिन्दी फिल्म जोकर का एक गाना यू ट्यूब पर "लीक" हो गया है और उसके बोल "I wanna F**k you baby"। शराब, अश्लील गाने और वीडियो और नेट पर सर्वसुलभता और बेटा होने का दर्प। यह माहौल घातक है। इसका सुपरपावर होने और ना होने से मतलब नहीं है। यह तो उस व्यवस्था की स्वाभाविक उपज है जिसे हम बना रहे हैं।  इसके नियम और मूल्य भी हमें ही बनाने हैं। और नियमों को बनाने का मतलब होता है सीमाएं खींचना। अगर समाज को अराजक नहीं बनाना है तो कुछ हदें तो हमें बनानी ही होंगी। ऐसी घटनाएँ कानून का नहीं समाज का विषय होती हैं और यहीं आज का समाज असफल है। पहले समाज का दबाव और डर ऐसे आपराधिक तत्वों को दबाता था। केवल दबंग ही बच पाता था। लेकिन आज समाज अनुपस्थित है। गुवाहाटी की चलती फिरती रोड पर 8 - 10 लड़के एक लड़की का  शोषण करते रहे और दसियों लोग मूक दर्शक बने रहे? समाज इतना मूक बाघिर कभी नहीं था। गाँव में हमारे पैर बाहर पड़ते ही गली में दसियों लोग पूछ बैठते " काए लला कहाँ जाय रहे" जवाब दीजिये नहीं तो शिकायत घर हमसे पहले पहुँच जाती थी। और आज सोसाइटी में सामने वाले फ्लेट में कौन रहता है पता नहीं। सोचिए कैसा समाज हम बना रहे हैं। आधुनिकता कपड़ों से नहीं, सड़कों से नहीं, ऊंची इमारतों से नहीं सोच से आती है।

14 अप्रैल 2012

निर्मल तो नॉर्मल है यह बवाल ही एबनॉर्मल है।

निर्मल बाबा की कृपा पर बवाल मचा है। एक न्यूज़ चैनल पर शाम का पूरा समय(7 बजे से 12 बजे तक) निर्मल बाबा को दे दिया गया। आरोप थे कि वे 36 से अधिक चैनलों पर प्रचार करते हैं (पता नहीं इस चैनल ने अपने प्राइम टाइम के मूल्य को इस आंकड़े शामिल किया या नहीं) , वे भक्तों से प्रति सत्संग 2000 रुपये लेते हैं और चमत्कार का दावा करते हैं। इस देश में यह कोई नयी बात नहीं है। अनेक मुरारियों, आसारामों, बापुओं, रामदेवों  की दुकान चल सकती है तो निर्मल बाबा की दुकान क्यूँ नहीं। जब पूरी दुनियाँ में सेल्फ हेल्प किताबों के पीछे पागल हो, लीडरशिप और मोटीवेशन एक्सपर्ट्स मोटी फीस लेकर अपनी दुकान जमा सकते हैं तो निर्मल बाबा क्यूँ नॉर्मल नहीं हैं? आखिर जांच तो उन बाबाओं की होनी चाहिए जो भक्तों से पैसा नहीं लेते और फिर भी उनका साम्राज्य करोड़ों का है। आखिर क्या स्रोत है इस पैसे का? मैं बाबाओं का फैन नहीं हूँ और न ही निर्मल बाबा की तरफदारी कर रहा हूँ लेकिन इस सारे मामले में मुझे तथ्य कम ईर्ष्या ज्यादा लगती है। ये सभी निर्मल विरोधी उस समय कहाँ चले जाते हैं जब बाबाओं के आश्रम में हत्याएँ, व्यभिचार  और अनाचार होता है। टीवी एंकर का लगातार प्रश्न यह था कि इस पैसे की आपको क्या ज़रूरत है। क्या ऐसा ही प्रश्न उसे भारत के उन मंदिरों से नहीं पूछना चाहिए जहा हर वर्ष करोड़ों का चढ़ावा चढ़ता है? मेरे विचार से तो बाबा कर्म को एक अब एक सामान्य व्यवसाय मान कए सरकार को अब मंदिरों, बाबाओं और धर्मार्थ संस्थाओं पर भी  बकायदा टैक्स निर्धारित कर देना चाहिए। फिर यदि लोग स्वयं ही उल्लू बनना छाते हैं तो बने। निर्मल दरबार, आसाराम दरबार, मोरारी दरबारों में मैंने अनेक पढे लिखों को भी देखा है। अब अगर इतना सब होने के बाद भी कोई इन्हें उल्लू बना सकता है तो सरकार, पुलिस और मीडिया को दर्द क्यूँ हो रहा है। वे अपनी खुशी से पैसे दे कर सत्संग में जा रहे हैं। आखिर मानसिक शांति की खोज में लोग मनोचिकित्सकों को पैसे दे सकते हैं  तो बाबाओं को क्यूँ नहीं? जब लोग प्रचार करके पेरेंटिंग एक्सपर्ट बनकर प्ले स्कूल खोल कर लोगों को ठग सकते हैं तो निर्मल भला यह क्यूँ नहीं कर सकते? आखिर तब तो किसी मीडिया वाले ने उस प्ले स्कूल संचालिका से यह नहीं पूछा कि आपको यह ज्ञान कहाँ से और कैसे मिला?  निष्कर्ष यह कि निर्मल के बहाने ऐसे सभी मामलों में स्थायी हल निकालना चाहिए। अभी का बवाल तो महज़ एक ऐसी कार्यवाही लग रहा है जो ईर्ष्या से प्रेरित है।

19 मार्च 2012

डर्टी पिक्चर : एक दुखद कहानी का उत्सव

कहानी है विजय लक्ष्मी की। जिसकी शादी अल्पायु में ही हो गयी। पति और परिवार के निरंतर जुल्मों और महत्वाकांक्षा ने विजयलक्ष्मी को एक साहसी कदम उठाने को मजबूर कर दिया। वह घर से भाग गयी और पहुँच गयी मद्रास। फिर शुरू हुआ उसके दैहिक, आर्थिक और मानसिकशोषण  का वह सिलसिला जो उसकी मौत या ह्त्या के बाद भी आजतक जारी है। विजयलक्ष्मी से सिल्कस्मिता बनी एक सामान्य औरत के निरंतर शारीरिक, मानसिक और व्यावसायिक शोषण की दुखद लेकिन सत्यकथाको  इस प्रकार प्रस्तुत करना जैसे यह एक महान औरतवादी स्त्री की महान कहानी हो, एक विकृत प्रयास है। सत्य तो यह है की जिस सिल्क को इस फिल्म इंडस्ट्री ने हमेशा व्यावसायिक, हवस और नीची नज़रों से देखा वही फिल्म इंडस्ट्री आज उसकी महानता के दावे की चाशनी में लपेट कर  असल में सिल्क का नाम भुनाने की ही डर्टी कोशिश कर रही है। सिल्क का शोषण अभी तक रुका नहीं है। यह उसकी मौत के बाद भी इस रूप में जारी है। सिल्क जैसी अनेक हैं जो अलग अलग क्षेत्रों में इसी तरह के शोषण का शिकार होती हैं। चाहे वह सोनागाछी के वेश्यालय हों या बड़े फैशन घराने। सभी में महिलाओं की एक ही कीमत होती है - उनकी सेक्स अपील। उसका व्यक्तित्व, सोच, नाम सब इसी तराजू में तौले जाते हैं। घरों से भागी औरतों की यही कहानी है। उनका अंत आज भी वेश्यालयों में ही होता है, फिर चाहे वह जी बी रोड का रेड लाइट क्षेत्र हो या फिल्म नगरी। धंधे का अंदाज़ अलग होता है लेकिन ग्राहक की दृष्टि वही होती है। वे पैसा बनाने की मशीन होती हैं। जो लोग सिल्क की कहानी में औरत की आज़ादी की महानता खोज रहे हैं और सिल्क के विषादमय जीवन को विजय और संघर्ष की महान गाथा बना देने पर तुले हैं उन्हें शायद  अंदाज़ा नहीं है कि भारत ही नहीं विश्व की कई देशों की स्त्रियॉं के लिए ऐसे संघर्ष महानता का नहीं मजबूरी का नाम हैं। सेक्सुअलिटी  का सहारा ले कर चढ़ने वाली स्त्री अंततः शोषण का ही शिकार होती है। मीडिया, मार्केटिंग और बाज़ार ऐसी सभी कहानियों को ऐसे ही प्रस्तुत करता है। इन औरतों को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे बेबाक, बिंदास और आज़ाद हैं, वे अपनी शर्तों पर जीना चाहतीं हैं और देह उनके लिए  आगे बढ्ने का वायस है। लेकिन इस सुनहरे वर्क के भीतर आपको मिलती है एक विषादमय दुनियाँ, अकेलापन और वेदना। अगर आइटम बनना ही अपनी शर्तों पर जीना है तो सबसे अधिक आजाद एक वेश्या ही है। ऐसी औरतें चाहे वह  मर्लिन मोनरो हो या सिल्क स्मिता दोनों को ही सामाजिक और व्यावसायिक शोषण के साये में ही ज़िंदगी जीनी पड़ती है और उसे तथाकथित सफलता भी तभी मिलती है जब वह किसी पुरुष का सहारा खोजती है। एक आध्यन के मुताबिक आज अमेरिका में लगभग 11 % परिवार गरीबी की रेखा से नीचे हैं। इनमें भी 28 % परिवारों की मुखिया स्त्री है जो या तो तलाकशुदा हैं या फिर अविवाहित माताएँ । यह दोनों ही वर्ग पुरुषों पर निर्भर थे और शुरुआती वर्षों में इसी निर्भरता ने उन्हें शिक्षा या हुनर सीखने से वंचित किया और आज जब वे परित्यक्त है तो गरीबी में जी रहे हैं। इस स्थिती में भी उनका सामाजिक, दैहिक, आर्थिक शोषण जारी रहता है। फैशन मॉडल्स का अधनगा कैटवाक हो , चीयर लीडर्स हों, फिल्मों में आइटम गर्ल्स हों सभी आखिर तो पुरुष की सेक्स भूख को ही शांत करने का काम करतीं हैं। आखिर कितनी महिलाएं किंगफिशर का कलेंडर खरीदतीं होंगी?  सिल्क स्मिता की कहानी एक दुखद सच्चाई है और शोषण की उस व्यवस्था प्रश्नचिन्ह लगाने की बजाय उसे महिमामंडित करने की व्यावसायिक कोशिश है यह फिल्म।काश यह फिल्म उसकी उफनती जवानी के जलवों की बजाय सिल्क स्मिता की होती ।  बेशक विद्या बालन की अदाएं लुभावनी हैं और शायद इतनी की राष्ट्रीय पुरस्कार ज्यूरी भी अपने को रोक ना पायी। फूल्स पैराडाइज़ में आपका स्वागत है। 

6 मार्च 2012

मेरा काम तो चलेगा - राहुल गांधी

राहुल गांधी आखिर अपनी माँद से नहर निकले की कहीं कोई उन्हें सिंह की बजाय सियार न मान ले यूपी की हार के बाद। वे अपने उत्तर सोच कर आए थे। मुलायम सिंह यादव जी और अखिलेश को लोकतन्त्र की मजबूरी मान कर बधाई दी (उनके शब्द थे मुलायम जी और अखिलेश को बधाई क्यूंकी डेमोक्रेसी है तो उन्हें बधाई)। मैंने उप की जनता से वादा किया था की मैं उनको गावों में खेतों में गरीबों के साथ सड़कों पर दिखाई दूँगा और मेरा काम तो चलेगा।
सही कहा राहुल भैया हमें भी यही लगता है की आपका काम तो चलेगा ही। यू पी , बिहार और अब फिर यू पी में असफल प्रदर्शन के बाद भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तो आपकी पक्की है। 

5 मार्च 2012

 कपिल देव पूछ रहे हैं सचिन क्यूँ खेल रहे वन डे। अरे भाई भूल गए आप। अरे भाई कई मसले हैं। एक तो खैर आप सही समझे । रिकॉर्ड बनाना है। भूल गए आप अपना ज़माना जब चयनकर्ताओं पर आरोप लगते थे की आपके रिकोर्डों की खातिर ही आप को टीम में बनाए रखा है वरना आपको तो बहुत पहले सन्यास ले लेना चाहिए था। और यह भी की आप के कारण श्रीनाथ को स्पेस नहीं मिलता। हम उस जमाने में क्रिकेट और आपके फैन होते थे । तब मीडिया इतना खूंख़ार नहीं था। सचिन के लिए तो अभी सन्यास लेने का दिन नहीं आया है। भारत की परंपरा के लिए ही वे खेल रहे हैं। भला ऐसा कौन सा महान खिलाड़ी हुआ है भारत में आज तक जिसे बेआबरू कर के कूचे से न निकाला गया हो। रवि शास्त्री, गावस्कर, वेंगी, कपिल, श्रीनाथ, गांगुली, द्रविड़ आदि। सभी को झाड़ू से ही बुहारा गया है। कोई औस्ट्रेलिया तो है नहीं जहां ब्रेडमेन के खिताब को बचाने के लिए खिलाड़ी अपना एक रन कम ले। या फिर किसी खिलाड़ी के सम्मान में पूरा स्टेडियम खड़ा हो जाए और टीम उसे गोद में उठा ले। नहीं हम तो ठहरे कबड्डी वाले। टांग खींचे बिना चैन नहीं। एक मैच हारे तो जूते दूसरा जीते तो फूल। तो भैया कपिल दा आप तो रहने ही दो । अच्छा नहीं लगता। रही बात सचिन की तो जब उनकी तंग बुरी तरह खींच दी जाएंगी वे तब ही सन्यास लेंगे। (खबर दैनिक हिंदुस्तान से साभार)

होली पर पाया नया रंग

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इस होली पर नया रंग खोजा मैंने - चुनाव का रंग

18 वर्षों में पहली बार वोट डाला। बचपन में गाँव में बड़ा ज़बरदस्त उत्साह देखा था। परचियाँ, बिल्ले, भोंपू, टेम्पो, पोस्टर, बल्लियाँ गाने बाजे, किसी उत्सव का सा माहौल। सबसे बड़ा त्योहार। बाद में वारदातें, बूथ कैप्चरिंग, हत्या, धमकी और डर। बड़े हुये तो चुनावों से दूर रहने की आम सहमति के साथ। 18 वर्ष के होने से पहले ही वोटिंग की आयु 18 कर दी गयी थी लेकिन फिर भी नहीं निकले। 80 के दशक में टीवी पर पूरे दिन फिल्में आतीं थी। स्कूल में भी नागरिकशास्त्र बस यूं ही था। और फिर स्नातक में भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान तो जैसे समाज से कोसों दूर ही थे। बाद में जब विश्वविध्यालय में राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशस्त्र से परिचय हुया तो लगा की यह विषय आस पास के बारे में अधिक बताते हैं। संविधान पढ़ा, आर्थिक नीतियाँ पढ़ीं और समाज के गठन के बारे में पढ़ा तो लगा की यह जीवंत विज्ञान हैं। मन में नागरिक प्रक्रिया में शामिल होने का जज़्बा तो था पर आदत आलस की पड़ चुकी थी। हम नेहरू युग के बाद जन्मे थे सो करिश्मा के प्रभाव में नहीं थे। इन्दिरा युग का अवसान भी हो चुका था और राजनीति अपनी सबसे दायनीय अवस्था में पहुँच चुकी थी। यह युग मण्डल, कमंडल का था और प्रगतिशील युवा होने के नाते हम इन मुद्दों हमारी राय का प्रतिनिधित्व कोई राजनैतिक पार्टी नहीं करती थी। तो हमें अपना वोट डालना व्यर्थ लगा। आखिर किसे चुनें। ना हम जातिवाद के समर्थक थे, ना आरक्षण के, ना ही सांप्रदायिकता के। 90 के दशक के आरंभ से राजनीति में जो नंगा नाच चला तो हमने इस लोकतन्त्र से ही किनारा करना ठीक समझा। देशकी आर्थिक हालात बिगड़ रही थी और नेता अपनी नीच राजनीति में मशगूल थे। देश का सोना एक ऐसे प्रधानमंत्री और उसकी सरकार ने गिरवी रखा जिसे जनता का आदेश प्राप्त नहीं था। ठीक इसी समय देश की नीतियों में आमूल चूल परिवर्तन हुय और नेता, बाबू, लाला गठजोड़ ने नयी ऊँचाइयाँ और नए रास्ते पाये। देश में नए करोड़पति हुये और "ऋणम कृत्वा घृतम पिबेत" का अद्भुत दर्शन आरंभ हुया। जाति, धर्म और अपराध ही राजनीति के स्तम्भ बन गए। शेषन ने जब जनता को चुनाव आयोग से परिचित करवाया और चुनाव धीरे धीरे कम हिंसात्मक होने लगे तो हमने यह भी देखा की किस तरह चुनाव आयुक्त के पर कतरे गए और कैसे यह सुनिश्चित किया गया की आयुक्त मनपसंद ही हो। इसी समय युवाओं की आकांक्षाओं ने भी नए आयाम खोजे और चल पड़े उदारीकरण के रास्ते दूर देशों को "यहाँ का सिस्टम ही है खराब" कह कर। जी नहीं गए वे भी वोट और राजनीति से तो दूर ही हो गए। लोकतन्त्र में भला  भरोसा किसे रहा? कहाँ है लोकतन्त्र, कहाँ हैं मौलिक अधिकार? बस एक ही बात अच्छी है लोकतन्त्र के बारे में की कम से कम आप इसकी बुराई तो कर ही सकते हैं लेकिन आगरा आप व्यक्तिगत से समष्टिगत होते हैं इस बुराई में तो आप अपने अतीत को जरूर टटोल लें और कीचड़ से होली खेलने को तैयार रहें। वरना आप को रामदेवा और  अन्ना जैसा हश्र भी झेलना होगा।  देश में पैसा बढ़ा और साथ ही घोटालों का ग्राफ भी। राष्ट्रमण्डल खेलों में जैसा खुला खेल हुआ और फिर जिस तरह 2G घोटाले ने बाबू - नेता - पत्रकार- लाला के गठजोड़ का पर्दाफाश किया तो विश्वास हो गया की यही हैं लोकतन्त्र के चार स्तंभ। किसी दिन न्यायपालिका की भी कलई खुलेगी संकेत तो मिल ही रहे हैं। इसी समय आया अन्ना का आंदोलन और लगा की देश जाग गया है। पर यह भी इस देश की भीषण जनता को बस झकझोर ही पाया। राजनीति का बाहरी भरकम रथ इसे भी रोंद गया। चुनाव शुरू होते ही भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रहा। मुद्दा है तो 40 साल के युवा राहुल की बातें, उनकी रातें। वे युवा हैं लेकिन राजनीति वे बुढ़ाती हुयी करते हैं। वही फार्मूला - जाति, धर्म और आरक्षण। तो सोचा किसे वोट दिया जाए। ना कोई पार्टी न ही प्रत्याशी इस लायक लगा जिसे वोट दिया जाए। फिर तय किया की नियम 49 - ओ का प्रयोग करूंगा। बूथ पर गाया, वॉटर पर्ची दी, स्याही लगवाई और पीठासीन अधिकारी से आग्रह किया वह तय प्रकीरिया के अंतर्गत दर्ज करे की में मत नहीं दे रहा हूँ। अफसोस की 49-ओ का फार्म वहाँ उपलब्ध नहीं था। अतः मैंने निश्चय किया की जब देश में अंधा युग हो और कानून भी अंधा हो तो वोट भी अंधा ही होगा अतः आँखें बंद किन और बिटिया से कहा की वह अक्कड़ - बक्कड़ बम्बे बो कहे और जैसे ही उसने कहा चोर निकल के भागा मेंने बटन दबा दिया। पता नहीं कौन सा बटन था और किसको मिला पर जब चौपट राजा हो तो ऐसे ही चौपट तरीके से वोट देना सबसे अच्छा है। खैर इस बार यह नया रंग अच्छा लग रहा है। होली मुबारक !

27 फ़र॰ 2012

नोर्वे को सबक

दो भारतीय बच्चों को तथाकथित सुरक्षा गृह में रखने का मामला बड़ा विचित्र है और साथ ही संस्कृतियों की विभिन्नता भी दर्शाता है। नॉर्वे के क़ानूनों के अनुसार ये भारतीय दंपति बच्चों के पालन में सक्षम नहीं थे अतः बच्चों को किन्हीं दूसरे घरों में भेज दिया गया। यह अक्षमता थी - बच्चों को हाथ से खाना खिलाना, साथ सुलाना आदि। ऐसा केवल यही मामला नहीं है बल्कि नॉर्वे हर वर्ष बड़ी मात्र में बच्चों को मटा पिता से अलग करता आया है इन्हीं क़ानूनों के आधार पर। कोई राजा महाराजा सनकी हो सकता है पर एक कल्याणकारी राज्य की पूरी मशीनरी यदि सनकी हो जाए तो चिंता होती है। कानून बेशक सनक में नहीं बनाए जाते और अगर नॉर्वे में ऐसी कानून हैं तो इनकी ठोस वजह भी होनी चाहिए। और यही तथ्य मुझे चिंता में डाल देता है। कानून ईश्वर नहीं बनाता बल्कि क़ानूनों के पीछे समाज होता है। अगर नॉर्वे बड़ी मात्र में बच्चों को फॉस्टर होम्स में भेजता है तो यह तथ्य यही बताता है की नॉर्वे के समाज में बड़ी गड़बड़ है। समाज विज्ञान की भाषा में कहें तो वहाँ समाज डिसफंकशनल हो चुका है। यदि समाज अपने बच्चों को सुरक्षा नहीं दे सकता और समाज में यदि बच्चों को अपने ही माँ बाप से असुरक्षा हो तो केवल कानून नहीं बल्कि बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। भारतीय बच्चे तो खैर हमें वापस मिल ही जाएंगे पर स्वयं नॉर्वे यदि अपने विकृत समाज को सही करने की दिशा में कदम नहीं उठाएगा तो यह मानवता के लिए खतरा बन जाएगा। इस घटना से सीख मिलती है खास तौर पर उन लोगों के लिए जो पश्चिम की हर चीज़ को बेहतर मानते हैं और भारत के लिए कहा करते हैं "यहाँ का तो सिस्टम ही है खराब" । शायद नॉर्वे का सिस्टम उन्हें भी रास नहीं आएगा। 

12 फ़र॰ 2012

व्हिट्नी ह्यूस्टन नहीं रहीं

एक महान कलाकार की असमय मौत ------एक बार फिर। व्हिट्नी ह्यूस्टन अश्वेत अमेरिकी गायिका थीं जिन्हें दुनियाँ ने उनके अतिशय सफल एल्बम "बॉडीगार्ड" (ढिंका चिका वाला नहीं - उसे में Bawdy guard कहना पसंद करूंगा) और उनके ज़बरदस्त गाने "आई विल ऑल्वेज़ लव यू"  से पहचाना था। हालांकि उनका गाना "वन मोमेंट इन टाइम " 80 के दशक में भारत में भी लोकप्रिय रहा है। वे  सी सी ह्यूस्टन की बेटी थीं। उनकी कहानी भी अन्य अमेरिकी सुपर स्टारों की तरह धूमकेतु सी रही। वे आयीं, वे चमकीं और खो गईं। अमेरिका में यह अब रिवाज सा बन गया है की सुपर स्टार आखिर कार मुकद्दमेबाजी, अवसाद, नशा, और अंततः मौत का शिकार बनते हैं फिर चाहे वह मारलीन मोनरो हों या माइकेल जैक्सन, ब्रिटनी स्पीयर्स हों या फिर व्हिट्नी ह्यूस्टन सभी की कहानी एक जैसी। सेलिब्रिटीज के लिए अमेरिका सुरक्षित जगह नहीं है

प्रस्तुत है उनके कुछ गाने

8 फ़र॰ 2012

उदार हृदय और खुला दिमाग

File:Oprah Winfrey (2004).jpgओप्रा विनफ्रे हाल ही में भारत प्रवास पर थीं। वे दिल्ली आगरा, जयपुर, मथुरा और मुंबई भी गईं और हर जगह लोगों ने उन्हें खुले दिल और उदार हृदय से स्वीकारा। जयपुर में जो सम्मान उन्हें मिला उससे अभिभूत होकर उन्होंने अपनी दादी की इच्छा का ज़िक्र किया की उनकी दादी चाहतीं थीं की वे एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में बड़ी हों। बेशक उन्हें अपने टीवी प्रोग्रामों से ना केवल अमेरिका बल्कि पूरे विश्व में भरपूर प्यार और प्रशंसा मिली है। वे खास हैं। वे नारी शक्ति की प्रतिनिधि हैं और उनके कार्यक्रमों  का सकारात्मक स्वरूप प्रेरणादायी है। वे यहाँ भारतीय विधवाओं के दशा पर अपने कार्यक्रम के लिए फिल्म बनाने आयीं थी और मथुरा में वे उन्हीं विधवाओं से मिलने गईं थीं। यह अच्छी बात है की लोग इन विधवाओं की दुर्दशा पर सोचें लेकिन दुख तब होता है जब यह सोच तभी निकलती है जब किसी को अपनी फिल्म बनानी है या किताब लिखनी है। इससे आगे की लड़ाई कौन लड़ेगा? और तभी यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्में तो बनती ही रहेंगी फिलहाल तो इन विधवाओं की आवास और भोजन, कपड़े की लड़ाई तो पारंपरिक मंदिर, ट्रस्ट आदि ही कर रहे हैं और बेशक शोषण भी (सभी नहीं)। फिल्म बना कर किताब लिख कर आप स्थिति तो उजागर कर देते हैं लेकिन इससे आगे कि लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं आता। क्यूँ नहीं आज फिर कोई ज्योतिबा फुले पैदा होता? क्या होता अगर गांधी जी देश की दुर्दशा पर केवल किताबें लिखते रह जाते और ज्योतिबा फुले भाषण ही देते रहते? भारत का विरोधाभास सभी विदेशियों को चकित करता है। लेकिन यही सच्चाई है। यह विरोधाभास उपजता ही तब है जब हम विकास का मतलब ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों और चमकती गाड़ियों से लगते हैं। पर जब इन्हीं इमारतों को बनाने वाले मजदूर, किसी महाशहर के बाहर अमानवीय परिस्थितियों में अवैध बस्तियों में अपने दिन काटने लगते हैं तो हमें विरोधाभास दिखाई देता है और तब कोई उन्हें झुग्गियों का कुत्ता(स्लम डॉग ) कह कर उपहास उड़ाते हुये तमाम पुरस्कार बटोर लेता है क्यूंकी  उन देशों के दर्शकों के लिए यह स्लम डॉग अजूबा है। ओप्रा को भी जयपुर में बैलगाड़ी पर सरिये ढोते, गधे पर बैठा आदमी और मोटरसाइकिल पर बैठा मोबाइल पर बतियाते आदमी में भारतीय विरोधाभास के दर्शन हुये। पता नहीं यह तीन  घटनाएँ  भगवान बुद्ध की भांति उनके जीवन पर क्या प्रभाव डालेंगी। यह विरोधाभास उन्हें ,उ,बाई में भी दिखा जब वे बच्चन के यहाँ गईं और आश्चर्य किया कि अभिषेक अभी भी अपने पिता के यहाँ क्यूँ रहते हैं। बेशक भारत यात्रा एक सामान्य पर्यटक के लिए एक ना भूलने वाला अनुभव होता है लेकिन ओप्राः से यह आशा नहीं थी कि वे सांस्कृतिक भिन्नता को अपने चश्मे से देखेंगीं। हमारे लिए बच्चों को अपने घरों में रखना एक सामान्य बात है अमेरिका में नहीं। अभी हाल ही में नॉर्वे का मामला चर्चित था जिसमें डॉ छोटे बच्चों के  लालन पालन में अक्षम ठहरा कर उनके माता पिता से छीन कर दत्तक परिवार में रख दिया गया। बेशक ऐसे कानून वहाँ आवश्यक हैं। क्यूंकी न समाज और न ही परिवार पालन पोषण के कठिन कार्य में सहयोगी नहीं होता लेकिन यहाँ भारत में न केवल नवमातृत्व के लिए सुरक्षित वातावरण और दादी, नानी, माँ, सासू माँ का अनुभव और सहता सदैव उपलब्ध रहती है। निश्चित ही हम बड़े शहरों में एकल परिवारों, और पूर्णतः कटे पड़ोस और बढ़ते अपराधों से जूझ रहे है। ओप्रा को अमेरिकी समाज के विरोधाभासों पर सोचना चाहिए और भूमंडलीकरण  के इस दौर में जहां लोगों का आना जाना बढ़ रहा है सांस्कृतिक विभिन्नताओं को विरोधाभास समझने से बचना चाहिए। यह विरोधाभास ही हैं जो आज अमेरिकी कंपनियों को भारत की ऊर मोड रहे हैं। निश्चित ही किसी अमेरिकी कंपनी को अपनी बहू मंजिली इमारत बनाने के लिए सस्ते मजदूर, कम लागत का ऐसा ट्रांसपोर्ट और कम पैसों में कैसा भी काम करने वाले योग्य कर्मचारी अमेरिका में तो मिलेंगे नहीं। हालांकि हमें भारत के इन विरोधाभासों से कोई लगाव नहीं है लेकिन ओप्रा जैसी हस्ती से फिर वही सस्ती टिप्पणियाँ सुनना  भी कोई कम विरोधाभासी नहीं हैं - आप खुले दिमाग और उदार हृदय से आयें हैं तो फिर विरोधाभास क्यूँ कहते हैं? ओप्रा आपसे विचारों कि अधिक गहराई कि अपेक्षा थी। रही बात स्टैंडिंग ओवशन  कि तो यह हम भारतीयों कि आदत है - बिछ जाने कि  बस वह आदमी अमेरिकन होना चाहिए। ओप्रा को इसमें भी विरोधाभास दिखना चाहिए था। 

1 फ़र॰ 2012

आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें

अल्लामा इकबाल कि यह नज़्म रबबनी बंधुओं ने फिर गायी है। इकबाल का एक देश प्रेमी से एक विभाजनकारी में बदलाव एक ऐसा प्रश्न है जिसे आज हर एक इतिहासकार को खोजना चाहिए। क्यूंकी इसके उत्तर में ही हमें वे विष बीज मिल पाएंगे जो आज दोनों मुल्कों में फल फूल रहे हैं। बेशक आज का पाकिस्तान न तो जिन्नाह और ना ही इकबाल का पाकिस्तान है। और ना ही आज का भारत अब गांधी और भगत सिंह का भारत है।
इस गाने से परिचय के लिए मैं रेडियो वाणी का आभारी हूँ।

रवीश के मिसरे पर अपनी गज़ल

मीनार पर चढ़ कर बांग देते है, एंकर हैं हर मुद्दे को धांग देते हैं

सदन के गलियारों से लालाओं के दालानों तक, हम एंकर हर काम को अंजाम देते हैं।

कभी फेंक देते हैं तो कभी टांग देते हैं, एंकर हर शख़्स को ऐसा ही मक़ाम देते हैं।

तबीयत अपनी घबराती है सुनसान रातों में, जब एंकर चीख चीख कर बांग देते हैं।

पत्रकारिता अब भी एक मिशन है यारो,  पर ये मोटे कॉर्पोरेट मुर्गे मोटा ईनाम देते हैं।

कहे रवीश मर गया है रिपोर्टर, अब तो एंकर ही हर काम को लाम  देते हैं।

टीआरपी, विज्ञापन और आकाओं को बचाना है इसलिए एंकर आम आदमी के मुदद्दों को  थाम लेते हैं

एक नाटक का सुखांत

कितना अभूतपूर्व था भारतीय लेखकों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए खड़े हो जाना। कितना सुंदर था यह प्रयास सरकार का की हम धर्मनिरपेक्ष देश में सबकी सुनेंगे उनकी भी जो धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। नहीं सुनेंगे तो बस उन धर्म निरपेक्ष आवाज़ों को जो आतीं हैं यूपी के बुनकरों के घरों से या बुंदेलखंड के किसानों की झोपड़ियों से। वे imageनहीं सुनेंगे विदर्भ के उन मरते किसानों की आहें। वे नहीं सुनेंगे गर्भ मेनमरती बच्चियों की चीखें। नहीं वे नहीं सुनेंगे आवाज़ें जो मँगतीं हैं हक। जो मँगतीं हैं शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ्य। वे सुन नहीं सकेंगे 170 मिलियन स्लमडॉग्स (हमें गर्व है कि हमें गाली दे कर बनाई गयी फिल्म से ही ऑस्कर देवता ने कृपा की)  की व्यथा जो मजबूर हैं अमानवीय परिस्थितियों में रहने को। दरअसल वे जिनका होने का दावा करते हैं सबसे दूर वे उनसे ही हैं।

सलमान रुशदी की लेखकीय क्षमता पर तो खैर विशेषज्ञों को ही अधिकार है बोलने का लेकिन मिडनाइट्स चिल्ड्रेन और सेटेनिक वर्सेज़ पड़ने के बाद लगा कि खुमैनी के फतवे ने उन्हें अपने आकार से ज्यादा जगह दे दी है जिसे भरने का प्रयास वे अपनी बदन दिखाऊ पेज 3 पत्नियों के जरिये करने की कोशिश करते हैं। बेशक पत्नियाँ बुढ़ातीं हैं और इस काम के लिए नयी आपूर्ति तलाक के जरिये हो जाती है। हॉलीवुड के बहुतेरे कब्रोन्मुखी सेलिब्रिटीज को देखा है मेंने। हर 3 साल में पत्नियाँ बदल बदल कर ही खबरों में रहते हैं। शादी करते हैं तो खबर, तलाक लेते हैं तो खबर। तलाक का सेटेलमेंट ही करोड़ों में होता है। तो ऐसे महान लेखक का यहाँ आना हमारे साहित्य जगत के लिए बड़ी बात थी।

उनके आने से पता नहीं कितने नव लेखकों को प्रेरणा मिलती और साहित्य का कैसा भला होता लेकिन उनके आने और ना आने के दुविधापूर्ण नाटक से निश्चय ही अनेक लोगों को "उल्लू सीध करना" नामक मुहावरे की बहुत ही साहित्यिक और यथार्थपूर्ण व्याख्या देखने को मिली। जयपुर साहित्यिक सम्मेलन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि रही। एक अङ्ग्रेज़ी रंजित सम्मेलन द्वारा हिन्दी मुहावरे की ऐसी साहित्यिक व्याख्या!  आखिर भारत धर्मनिरपेक्ष के साथ ही भाषा निरपेक्ष भी है। इस नाटक के पटाक्षेप के साथ ही कई संतुष्ट पक्ष दिखे। कांग्रेस(सो) [घबराइए नहीं सोनियाँ गांधी की कांग्रेस को उनकी पारिवारिक परंपरा के हिसाब से नाम दिया है] , बरखा दत्त, साहित्य सम्मेलन, कट्टरपंथी मुस्लिम, कट्टरपंथी हिन्दू, न्यूज़ चैनल्स आदि।

सरकार ने यह दिखाया कि वह संविधान, कानून और व्यक्तियों की सुरक्षा को लेकर कितनी संवेदनशील है। उसकी खुफिया संस्थाएं देश पर हुये भयानक आतंकी हमलों को न तो रोक पातीं हैं और न ही उनका सुराग लगा पातीं हैं लेकिन सलमान रुशदी कि सुरक्षा पर बड़ी तत्परता से ये सरकार को पहले से आगाह कर देतीं है और जो सरकार खुफिया सूचनाओं को दबा कर बैठने की आदि हो चुकी है वह सलमान रुशदी कि रक्षा के लिए चिंतित दिखाई देती है।

कांग्रेस पार्टी के लिए सुनहेरा अवसर था। यूपी के चुनाव,  राहुल की युवा(?) राजनीति और मुस्लिम वोटों को ध्रुविकृत करने का एक और अवसर। मुसलमानों को संसाधनों पर पहला हक होने का दावा करने वाली यह पार्टी पिछले 100 सालों से मुसलमानों का एक मात्र प्रतिनिधि होने का दावा करती रही है और तुष्टीकरण कि राजनीति कि जन्मदात्री रही है।

किताब भारत में प्रतिबंधित है और तब से एक नयी पीढ़ी जवान हो चुकी है और दूसरी हो रही है। इस पीढ़ी ने शायद इस किताब का नाम भी नहीं सुना होगा। यह दारुल उलूम कि ही कृपा है कि सेटेनिक वर्सेस को अब यह पीढ़ी भी जानती है। साहित्य की ऐसी ही सेवा की एक शैक्षणिक संस्था से उम्मीद थी।

सबसे अधिक फायदा जयपुर सम्मेलन को हुआ। निरंतर यह खबरों में छाया रहा। राष्ट्रिय मीडिया में, प्राइम टाइम में इतना बड़ा प्रचार अगर देते तो कितना खर्चा आता, जिज्ञासु जन यह बात मायावती जी से पूछ सकते है। उन्होने लगभग 6 महीनों से रोज़ सभी समाचार चैनलों को एक साथ 10 से 20 मिनट लंबे प्रचार दिये हैं। इसके अलावा निरंतर प्रिंट मीडिया, इन्टरनेट, मोबाइल पर फेस्टिवल मनाया गया। साहित्य का तो पता नहीं पर हाँ बजारवाद, मार्केटिंग, डिजायनिंग, मीडिया मैनेजमेंट जैसी चीजों का फायदा जरूर हो गया। और दिग्गी पैलेस को भला कौन नहीं जानता? संजोय रॉय कि भीगी आँखें तो सालों तक याद राहेंगीं। भला अभिव्यक्ति कि आज़ादी के लिए  खून तो छोड़िए लोग आजकल स्याही भी नहीं बहाते ऐसे में ये आँसू जरूर याद रहेंगे। 

एक और हैं बरखा दत्त। पहले रिपोर्टर थीं फिर कारगिल की बहादुरी भरी रिपोर्टिंग करके चर्चा में रहीं, तेज तर्रार और झन्नाटेदार अङ्ग्रेज़ी वाली यह रिपोर्टर मीडिया के पयदानों पर चढ़ती गई और फिर जो हाल ज्यादा चढ़ने पर सभी का होता है [ गुरुत्वाकर्षण] वे गिरीं भी। उनका उत्थान और पतन नवमीडिया या बाजारू मीडिया की एक केस स्टडी है। बरखा दत्त कि विश्वसनीयता को जो झटका लगा था उससे उबरने का यह एक सुनहरा मौका था। बंद कमरे में सलमान रुशदी से वीडियो लिंक पर  साक्षात्कार का उत्साह उनके निरंतर ट्वीट्स से झलक रहा था। उनकी वाही वाही हुयी।

सलमान रुशदी यहाँ लगा कि कठपुतली हैं। वे कभी भी ठीक से नहीं बता पाये कि वे भारत आ रहे हैं या नहीं। पहले उन्होने कहा मैं आऊँगा, फिर सरकार कि सुरक्षा संबंधी सूचना दी और कहा कि नहीं आऊँगा। फिर सरकार को, जयपुर पुलिस को झूठा बताया। फिर वीडियो लिंक कि बात कि और फिर हिंसा की बात कह कर उससे भी किनारा कर लिया और फिर बरखा दत्त के साथ बंद कमरे में दहाड़े कि "मैं भारत आ रहा हूँ - निपटो इससे"। एनडीटीवी ने इस प्रोग्राम को ब्रोडकास्ट किया।

इसके साथ ही एनडीटीवी की टीआरपी बढ़ी, प्रतियोगी इस फुटेज को चलाने को बाध्य हुये और बरखा फिर कार्गिल जैसी बहादुर हुईं। उन्होंने अभिव्यक्ति नामक चिड़िया को आज़ाद ही कर दिया। सलमान रश्दी की किताबों की बिक्री बढ़ी, दारुल उलूम खबरों में आया, कांग्रेस ने भरोसा दिलाया कि मुसलमानों के खैरख्वाह वही है। कट्टरपंथी खुश हुये कि हमने सलमान रुशदी को जयपुर फेस्टिवल में किसी तरह नहीं बोलने दिया। और हमने राहत कि सांस ली कि चलो कुछ और देखने को मिलेगा।

इस सब के बीच बेचारी ओप्रा विनफ्रे को फायदा नहीं मिल पाया हालांकि उनके बॉडीगार्डों ने मथुरा में हाथापाई करके कुछ फुटेज हथियाने कि कोशिश तो की थी। चलिये ओप्रा अगली बार सही।

यद्यपि मेरा मानना है कि सलमान रुशदी को आने देना चाहिए। बोलने देना चाहिए। लोगों को उनकी भी किताबें पदनी चाहिए, मुसलमानों को भी। एक किताब आपकी आस्था को क्या हिला सकती है? हाँ अगर आप ऐसा करना बंद कर देंगे तो आस्था ही बंद हो जाएगी जैसे प्राचीन धर्म अब नहीं हैं क्यूंकी वे समय के अनुसार नहीं बदले।

अनुपम दीक्षित