19 दिस॰ 2011

अदम गोंडवी का जाना

साल 2011 न जाने क्यूँ जाते जाते कुछ ऐसे लोगों को ले जा रहा है कि लगता है बहुत अकेले हो जाएंगे आने वाले साल में। पहले बचपन के अंकल पै (टिंकल वाले - मेरी उम्र के नौजवान अभी भी शायद चकमक, डूब डूब और कालिया को नहीं भूले होंगे) फिर भोपेन हजारिका, जगजीत सिंह, देवानन्द और अब जमीनी शायर अदम। वक्त की पहचान जब साथ छोड़ने लगे तो समझना चाहिए कि अब वक्त बदलने का है। वक्त के बदलने का एहसास तो पहले भी था फिज़ाओं में जब अदीबों ने विचारधाराओं के अंत की घोषणा कर दी थी और जमीनी बात करने वाले को पूजीवादी गलियों (कम्युनिस्ट एक गाली है पूजीवादी दयारों में) से नवाजा जाने लगा था। ऐसे ही एक बेअदब जमीनी कवि थे अदम। दुष्यंत कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुये अदम्य जिजीविषा के धनी रामनाथ सिंह ने लोगों की असल बात कहने का जोखम उठाया था। उनके कुछ अशआर देखिये।

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में .

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में.

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में.

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
ससद बदल गयी है यहाँ की नखास में.

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक विडम्बना है जो ऐसी रचनाएँ अभी तक समीचीन बनी हुयी हैं। व्यवस्था निरंतर जस की तस है और जनता त्रस्त है। क्या यह हमारे लिए या प्रेमचंद के लिए शर्म की बात नहीं है की होरी आज भी न केवल ज़िंदा है बल्कि उसके हालात पहले से भी गए बीते हैं। हम प्रगति और विकास की बात करते हैं लेकिन इस विकास का जमा हासिल आखिर क्या है? ज़रा गौर से देखिये कि अदम की दृष्टि वह देखती है जो आसानी से दिखता नहीं। कितना व्यंग्य और व्यथा है।

· इस व्‍यवस्‍था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्‍या दिया
सेक्‍स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्‍फ़ास की

· जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में

· आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

· ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

और शहरों के इस उबाऊ अंधेर से घबरा कर ही शायद उनका यह शेर मुकम्मल हुआ होगा।

· ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

· न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्‍बी क़तारों में

· अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

और बेशक आपको बुरा लगे आखिर हम मध्यमवर्गीय लोगों के संस्कार तो हैं ही सामंतवादी -  लेकिन फिर भी

· वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

· इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

पूंजीवाद का ढोल बज रहा है। आइरन हील शाश्वत चक्र की भांति मंथर गति से घूम रहा है और 2011 तेजी से 1984 की अवस्था में पहुँच रहा है (यहाँ में ऑस्कर वाइल्ड के प्रसिद्ध उपन्यास 1984 की बात कर रहा हूँ)। जमीनी बात करने वाले हाशिये पर हैं। भारत सुपर शक्ति बन गया है। अच्छी बात है। प्रोपेगैण्डा सही जा रहा है। भारत धनवान है। काले धन की सूची बताती है। भारत में संभावनाएं हैं यह करोड़ों की संपत्ति वाले चपरासियों और क्लर्कों से साबित हो रहा है। आंदोलन हो रहे हैं और सरकार कटघरे में है। मनरेगा और खासुबि भी चल रहे हैं लेकिन फिर भी सोचता हूँ की अब जमीनी लोगों की बात कौन कहेगा। इस डर्टी पिकचर के युग में, मुन्नी, शीला, राजा, कलमाड़ी के दौर में भला अब कौन मेरा ध्यान जब तब सच्चाईयों की जमीन तक मोड़ेगा? शायद तुमने सोचा होगा -

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए

(दुष्यंत कुमार)

5 दिस॰ 2011

ज़िंदगी से इश्क़ का फसाना - देव आनंद

देव आनंद अब नहीं है लेकिन लगता है जैसे इस बात से खास फर्क नहीं पड़ता की वे सशरीर यहाँ हैं या नहीं। कुछ लोगों की शख्सियत उनसे भी बड़ी हो जाती है। देव आनंद बेशक अपने ज़िंदादिल अंदाज़ और ज़िंदगी की ललक के प्रतिमान बन कर हमारे बीच हमेशा रहेंगे और उनकी फिल्में, गाने तो हैं ही – सदाबहार। अभी कुछ दिन पहले ही उनका साक्षात्कार देखा था। बेबाक, खरी और भड़कीली बातें सभी को लुभातीं थी।  88 वर्ष की उम्र में भी देवानन्द की ज़िंदादिली में कोई कमी नहीं थी। वे सदाबहार थे ।  कोई शख्स सदाबहार कैसे हो सकता है। सदाबहार रहने के लिए आपको खुद को समय समय पर बदलना पड़ता है जैसे एक सदाबहार वृक्ष अपने पत्तों को निरंतर बदलता रहता है। बदलना एक कठिन काम है। लोग हमेशा बदलाव को ना पसंद करते हैं। लेकिन आगे बढ़ने के लिए बदलना जरूरी है। आगे बढ़ना भी जरूरी है,  एक दरिया की तरह,  ना कि एक पोखर की भांति, ठहरा हुआ ।  पोखर का पानी सड़ जाता है पर दरिया निर्मल रहता है,  क्यूंकी उसमें निरंतर नया जल आपूरित होता रहता है। इसी से दरिया प्रवाहमान बनाता है और उसमें  अपना रास्ता खुद बनाने कि ताकत भी इसी प्रवाह से आती है -
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिधर भी चल पड़ेंगे उधर, रास्ता हो जाएगा
शायद देव साहब की यही नवीनता  उनके सदाबहार होने के पीछे की ताकत थी।  जब उनसे एक साक्षात्कार में पूछा गया की आप की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कौन सी है तो उनका जवाब था अभी जो फिलम में बना रहा हूँ वही मुझे सर्वश्रेष्ठ लगती है हालांकि लोग कहते हैं की गाइड थी। वर्तमान में जीना ही भविष्य के लिए ऊर्जा देता है। बेशक गाइड उनकी बेहतरीन फिल्म थी लेकिन अगर कोई कलाकार यह मान ले कि वह अपना सर्वोत्तम दे चुका है तो बेहतरी की गुंजाइश नहीं रहती। देव आनंद ने यही नहीं किया। अपनी पहली हिट फिल्म के बाद ही जो कंपनी उन्होने बनाई उसका नाम ही उनके इस दर्शन को अभिव्यक्त करता है – नवकेतन। नवीनता के इस पुजारी ने निरंतर खुद को नए साँचे में ढाला। अभिनेता के बाद प्रोड्यूसर और फिर निदेशक व पटकथा लेखक। एक समय रोमांटिक हीरो की छवि वाले इस कलाकार के सह कलाकार राज कपूर जब  पिता का रोल करने लगे थे और दिलीप कुमार कि फिल्में पिटने लगीं थीं,  देवानन्द ने हरे रामा हरे कृष्णा और तेरे मेरे सपने जैसी दो बिलकुल भिन्न स्वभाव कि लेकिन सुपर हिट  फिल्में  दे कर जैसे घोषित कर दिया हो कि उनका समय अभी गया नहीं है। इसके बाद तो बनारसी बाबू, छुपा रुस्तम, अमीर गरीब, हीरा पन्ना  जैसी सफल फिल्मों की श्रंखला ने उन्हें पुनः स्थापित कर दिया।
और इतना ही नहीं परिवर्तन और नवीनता का यह प्रतीक अभिनेता अपनी सामाजिक उत्तरदायित्व को भी नहीं भूला और जहां 70 के उत्तरार्ध में इन्दिरा जी की इमरजेंसी के खिलाफ अच्छे अच्छों कि बोलती बंद हो गयी देवानन्द ने एक राजनीतिक पार्टी "नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया" बना कर 77 के चुनावों में इन्दिरा जी का विरोध भी किया था।

88 वर्ष का यह पुराना शख्स निरंतर नवीनता कि खोज में लगा रहा। चाहे वह फिल्में हों, फिल्में बनाने का तरीका हो, हीरोइने हों या असल जिंदगी में उनकी प्रेमिकाएँ हों। सुरैया, कामिनी कौशल और ज़ीनत अमान के साथ उनके रोमांस के किस्से भी चले और यह सभी असफल प्रेम कहानियों कि परिणति को प्राप्त हुये। इन पर सोचते हुये उन्हें कहते सुना कि हार असल में ग्रोथ है। असफलता नए दरवाजे खोलती है और हर बार जब में हारा तो मुझे नया मुकाम मिला। ऐसे ही फलसफे का बयान है उनकी आत्मकथा "रोमांसिंग विथ लाइफ" जिसमें अनेक किस्से रोचक भी हैं। आज उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है वह शायद ही भर पाये। मन तो नहीं हुआ उनकी मौत पर दुखी होने का पर फिर भी

शाम से आँख में नमी सी है,
आज फिर आपकी कमी सी है ।

 तो आइए अब से कुछ दिनों तक हम उनकी तरह ही इस ज़िंदगी का जश्न मनाएँ और इसके उन लम्हों को भरपूर जिएँ जो कि बस आज ही हैं - क्या पता कल हों न हों।
अंत में एक खूबसूरत गीत उन्हीं की फिल्म से।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।