15 मार्च 2011

प्रकृति का जयनाद


अरे अमरता के चमकीले पुतलो तेरे ये जयनाद काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बन कर मानो दीन विषाद। प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में, भोले थे, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में। वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार उमड़ रहा था देव-सुखों पर दुख-जलधि का नाद अपार।"


महाकवि जयशंकर प्रसाद की अमर कृति “कामायनी” की यही पंक्तियाँ याद आयी जब मैंने जापान के तट बांधों पर प्रलय सिंधु का प्रचंड प्रवाह देखा। यह प्रवाह केवल लहरों का प्रवाह ही नहीं था बल्कि इसमें मनुष्य के अनंत दुष्कार्यों के प्रति घृणा की भावना भी निहित थी।सुनामी से बचने के लिए तटीय शहरों के समुद्री किनारों पर जो तटबंध बनाए गए थे उन्हें हमने उद्दाम लहरों के दुर्दमनीय प्रवाह में बहते देखा, शहरों की सड़कों को खाइयों में बदलते देखा। इतने क्रोध में थीं ये लहरें की जहाजों को शहरों के बीच खड़ा कर दिया और कारों को मकानों के ऊपर चढ़ा दिया, गगनचुम्बी इमारतें अब धराशाही हो चुकी थीं और सब ओर बस प्रलय का तांडव था। लगता था जैसे यह प्रकृति का जयघोष है।

कोई टिप्पणी नहीं: